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________________ 97 Vol. XXXVI, 2013 प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श ३. जीवांजीवाभिगम, ४. पण्णवणा (प्रज्ञापना), ५. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), ६. जम्बुद्वीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः), चंदपण्णति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः) ८-१२. निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः) , ८. निरयावलियाओ (निरयावलिकाः), ९. कप्पवडिसियाओ (कल्पावतंसिकाः) १०. पुप्फियाओ (पुष्पिकाः), ११. पुप्फचूलाओ(पुष्पचूला:) १२. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा:) जहाँ तक उपर्युक्त अंग और उपांग ग्रन्थों का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय इन्हीं ग्यारह अंगसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अंगसूत्र वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं । उपांगसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा परिवाद के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था । ४ मूलसूत्र - सामान्यतया १. उत्तराध्ययन, २. दशवैकालिक, ३. आवश्यक और ४. पिण्डनियुक्ति - ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एकमत से मूलसूत्र माना है । समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्य विद्वानों में प्रो. ब्यूहलर, प्रो. शारपेन्टियर, प्रो. विन्टनित्ज, प्रो. शुब्रिग आदि ने एक स्वर से आवश्यक को मूलसूत्र माना है। किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं । ये दोनों सम्प्रदाय आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरुपता का अभाव है। अचेल परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं । तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में, धवला में तथा अंगपण्णत्ति में इनका उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि अंगपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भांति ही आवश्यक के छह विभाग किये गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। ६ छेदसूत्र - - छेतसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में १. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), २. कप्प (कल्प), ३. ववहार (व्यवहार), ४. निसीह (निसीथ), ५. महानिशीथ और ६. जीयकल्प (जीतकल्प) – ये छह ग्रन्थ माने जाते हैं । इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती है । वे दोनों मात्र चार ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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