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Vol. XXXIV, 2011
महाकविश्री कालिदास कृत 'नवरत्नमाला '
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संस्कृत साहित्य के नंदनवन में उपलब्ध कई प्रकार के देवतरुओं में 'स्तोत्र साहित्य' पारिजात समान शोभायमान है । स्तोत्र साहित्य में आकाश जैसी सर्वव्यापकता, वायु जैसी गतिता, तेज जैसी तरलता, जल जैसी निर्मलता और पृथ्वी की तरह वैविध्य सभरता है । 'स्तोत्र' साहित्य स्तुति, स्तोत्र स्तवन, सूक्त आदि नामों से प्रचलित है । मानस, पूजा, पञ्चक, अष्टक, दशक, पंचाशिका, शतक, अष्टोत्तरनाम, सहस्रनाममाला, कवच, अर्गला, कीलक, लहरी आदि प्रकार में उपलब्ध स्तोत्र साहित्य विभाजित है । उर्मि के अस्तित्व के साथ स्तोत्र का आरंभ हुआ । हृदय के भावों से उसे नवजीवन मिला। काव्यमय कल्पना से उसे वैविध्य मिला। जब तक हृदय की भावनाओं का अस्तित्व होगा तब तक 'स्तोत्र' इस संसार में रहेंगे, निर्विवाद सत्य है ।
‘स्तोत्र' शब्द, सबसे पहले 'ऋग्वेद' में प्राप्त होता है। (ऋग्वेद : ३/३१/१४/, ऋग्वेदः५/५५/ १) ऋग्वेद महत् अंशत: स्तोत्र संग्रह का रूप व्यक्त करता है । इसीलिए कहा जा सकता है कि संस्कृत साहित्य का मङ्गल प्रारंभ स्तोत्र साहित्य से होता है । स्तोत्र काव्य की प्रशंसनीय परम्परा हमारे यहाँ वैदिक साहित्य से प्रारम्भ हुई । इसके पश्चात् लौकिक संस्कृत साहित्य एवं हिन्दी साहित्य में भी स्तोत्र काव्यों की रचना निरन्तर होती रही है, और आज भी हो रही है। रामायण, महाभारत, पुराणों में, महाकाव्यों में, बौद्ध स्तोत्रों में, शैवस्तोत्र, वैष्णवस्तोत्र और साहित्य में भी स्तोत्र मिलते हैं। भक्त कवियों की वाणी भी स्तोत्र काव्य के रूप में मान्य है, तथा काव्य के प्रमुख प्रयोजन 'अनिष्ट निवारण' (शिवेतरक्षतये । का. प्र. : १ / २ ) की सिद्धि का साधन भी है ।
यह 'नवरत्नमाला' एक छोटा सा स्तोत्रकाव्य है, जो महाकवि कालिदास की कृति मानी जाती है । महाकवि कालिदास का व्यवधारण करने में कालिदास नाम की सूचि कालिदास नामक कवि का निर्धारण करने में विचारणीय है । संस्कृत साहित्य में तीन दण्डी की तरह कालिदास भी नौ (Nine) हो चुके हैं। प्रसिद्ध कवि कालिदास के सात ग्रन्थ निर्विवाद कालिदास का कर्तृत्व मान्य होता है परन्तु, उत्तरकालामृत, श्रुतबोध आदि ग्रन्थों के कर्ता कालिदास ही हैं यह बाबत विवादास्पद हैं । सम्पूर्णानन्द संस्कृत विद्यालय से कालिदास कृत 'पूर्वकालामृत' प्रकाशित हुआ है। 'श्रुतबोध' तो कवि कालिदास की विलासिता का परिचायक है । काव्यमाला में प्रकाशित हुई 'नवरत्नमाला' महाकवि कालिदास की कृति बताई गई है । इस कृति के प्रथम पद्य में भगवती गौरी को उँकार पञ्जरशुकी, उपनिषद उद्यान कलि की कलकण्ठी और आगमविपिन की मयूरी बताई गई है । उसका सरस्वती स्वरूप में वर्णन करते हुए कविने दयापूर्ण दीर्घनयन, देशिकरूप से भक्त का अभ्युदय देखनेवाली अपने वाम स्तन पर रखी हुई वीणावाली सरस्वती को संगीतमातृका कही है । नवयौवनोद्भेद, सुकुमारता, अमन्द आनन्द की संपतवाली तरूणी करूणापूर्ण है। उसने मुक्ताताटङ्क (कान में पहनने का आभूषण पहने हुए हैं। उसका हास्य मुग्ध है। अपनी उँगलियों के नाखून से वीणावादन करती है। 'सारेगमपधनि' वीणानाद शान्तता प्रवाहित करता है । संगीत के सूर के साथ अपना मस्तक कम्पित करती है। अपनी दृष्टि विकसित कमल की सुगन्ध और माधुर्य से आकर्षित होते हुए भृङ्गवाली (भँवरवाली) है। उसका अङ्ग मणिभङ्गसम मेचक (श्याम) है । यौवन वन की सारङ्गी, संगीतरूप कमल का आस्वाद करनेवाली भृङ्गी (भँवर) मिथ्या दृष्टान्त का मध्यभाग बनती है । अर्थात् सङ्गीत में लीन हो जाती है । यह गौरी मातङ्गी मङ्गल सङ्गीत की सौरभ है 1
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