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निम्बार्क के द्वैताद्वैत सिद्धान्त में कर्म की अवधारणा
उनका भक्षण करते हैं' इत्यादि स्थलों पर देवताओं का भक्ष कहा गया है जो कि गौण बात है । 'वह देवताओं का पशु है' इस वाक्य से भी वही बात प्रमाणित होती है । वास्तविक अर्थ तो यह है कि देवता उस व्यक्ति का उपभोग करते हैं, वह देव कोटि का है, देव लोकों में उसे देवताओं की अधीनता में आनन्द प्राप्त होता है । पुण्यक्षीण हो जाने पर उसे पुनः जन्म लेना पड़ता है, उसकी मुक्ति नहीं होती । उसका आवागमन चलता रहता है । वस्तुतः इस प्रकार के कथनों द्वारा परमात्मा की ही विशिष्टता का प्रतिपादन किया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा की निष्कामभाव से सेवा करने की अपेक्षा यज्ञादि कर्मों के माध्यम से अन्य देवताओं की उपासना के फल स्वरूप वह देवलोक या स्वर्ग लोक जाता है । स्वर्गलोक के भोगों का उपभोग वह तभी तक करता है जब तक की उसके शुभ कर्म का परिणाम बना रहता है, किन्तु जब पुण्य कर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तब पुनः इस लोक के भोगों को भोगने के लिये इस मृत्युलोक में उसका आवागमन होता है। गीता में भी कहा गया है कि 'वे वहाँ विशाल स्वर्गलोक के भोगों का उपभोग कर पुण्य के क्षय हो जाने पर पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं' । इस प्रकार वे उक्त धर्म का आचरण करने वाले वे भोगकामी मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते रहते
५ । यहाँ भी उनके अपने अपने कर्मों के अनुसार ही भिन्न भिन्न योनियों की प्राप्ति होती है । श्रुति में वर्णित है कि 'जो अच्छे आचरण वाले होते हैं, ते उत्तम योनि प्राप्त करते हैं३६' । स्मृति में इसे स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि 'वर्ण कर्म एवं आश्रम कर्म का विधिवत् पालन करने वाले व्यक्ति मरणोपरान्त स्वर्गादि लोकों में जाकर अपने कर्म फलों का उपभोग कर अपने अवशिष्ट कर्म फलों के परिणामस्वरूप उत्तम जाति, कुल, रूप, आयु, विद्या, धन आदि का सुख भोगे के लिये पुनः पृथ्वी में जन्म ग्रहण करते हैं'३७ ।
Vol. XXXIII, 2010
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दुष्ट कर्म करने वालों की गति दुष्टकर्म करने वाले व्यक्तियों की मरणोपरान्त जो गति होती है उसके विषय में भिन्न-भिन्न विचार प्राप्त होते हैं । शास्त्रों में निषिद्ध कर्मों को करने वाले तथा शस्त्रों में विहित कर्मों पर जो आस्था नहीं रखते वैसे व्यक्तियों की भी चान्द्रमसी गति कही गयी है 'जो कोई भी इस लोक को छोड़ कर जाते हैं वे सभी चान्द्रमसी गति पाते दुष्टकर्म करने वाले यमालय में नरकों की यातनाओं को भोगने के पश्चात् चन्द्रमण्डल में जाकर पुनः पृथ्वी पर लौट आते हैं । यम कहता है कि धन के मोह से अन्ध हुये तथा प्रमाद करने वाले उस मूर्ख को परलोक का साधन नहीं सूझता । यह लोक है परलोक नहीं ऐसा मानने वाला 'पुन: पुनः मेरे वश को प्राप्त होता है' । वैवस्वत यम दुष्ट व्यक्तियों को संयमित करने के लिये अपने शासन से दंड़ित करते हैं ।' इत्यादि कथनों से सिद्ध होता है कि दुष्टकर्म करने वाले यमालय को जाते हैं। अच्छे आचरण वाले को यमालय नहीं जाना पड़ता है। पराशरादि स्मृतियों के अनुसार दुष्टों को तो यमालय अवश्य ही जाना पड़ता है । (वे. पा. सौ. ३.१.१४) । रौरव आदि सात प्रकार के नरकों का भी स्मृतियों में वर्णन प्राप्त होता हैं? । रौरव आदि नरकों में चित्रगुप्त आदि अधिष्ठाता यम के शासन में यम के सहायक अधिष्ठाता हैं४२ । द्वैताद्वैत मत में इस विषय में कहा गया है कि वेदों में कथित पंचाग्निविद्या के प्रसंग जो बात कही गयी है उससे सिद्ध होता है कि दुष्टों की ऊर्ध्व गति नहीं होती है । " क्षुद्र आचरण वाले व्यक्ति देवयान अथवा पितृयान इन दोनों में से किसी भी मार्ग में नहीं जाते हैं, पृथ्वी ही उनका तृतीय स्थान है, यहीं जन्म ग्रहण