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________________ रमानाथ पाण्डेय SAMBODHI करते रहते हैं तथा मृत्यु को प्रात होते रहते हैं, अतः देवयान व पितृयान के लोक लगभग खाली रहते हैं (छान्दोग्योपनिषद -५.१०.८)" क्योंकि कुछ ही लोग वहाँ जाते हैं, अधिकांश पृथ्वी पर ही रहते हैं । ज्ञानयोगियों व कर्मयोगियों के लिये ही क्रमशः देवयान व पितृयान दो मार्ग बतलाये गये हैं । जो आत्मतत्त्ववेत्ता हैं, उनके लिये देवयान मार्ग कहा गया है तथा जो इष्टापूर्त आदि उपकार कर्मों में लगे रहने वाले हैं उनके लिये पितृयान है । इस प्रकार स्पष्ट है कि पाप कर्म करने वाले जीवों की मात्र अधोगति ही होती है, उनकी चान्द्रमसी गति नहीं होती४३ । तृतीय अधम स्थान में ही जन्म लेने तथा मरने वाले दुष्ट कर्म करने वालों के शरीर के निर्माण के लिये उन पाँच आहुतियों की भी आवश्यकता नहीं होती, जो कि श्रद्धा आदि के क्रम से होती है । ये पापी तो जन्म कर शरीर प्राप्त करते हैं। कर्म तथा पुनर्जन्म - कर्मवाद के अनुसार कर्म तथा पुनर्जन्म परस्पर आश्रित हैं । अत: कर्म से पृथक् पुनर्जन्म की व्याख्या सम्भव नहीं है । वनमाली मिश्र के 'श्रुतिसिद्धान्तसंग्रह' के अनुसार दुःख का कारण आत्मा के प्रति मोह का अभाव है। स्वार्थवश किये गये कर्म, वेद में जो कर्म निषिद्ध माने गये हैं उनका करना तथा वेद में आदिष्ट कर्मों का न करना पाप को उत्पन्न करता है । इसके विपरीत कर्म और वे कर्म जो भगवान् को प्रिय हैं, पुण्य प्रदान करते हैं । पाप एवं पुण्य का मूल, भगवान् की शक्ति ही है जो भगवान् के गुणों को आवृत्त कर कार्य करती हैं । अविद्या सत् एवं भावरूप हैं तथा प्रत्येक जीव में भिन्न है। यह मिथ्या अथवा भ्रम को उत्पन्न करती है जिससे वस्त अयथार्थ दीखती है तथा यही मिथ्या-ज्ञान पुनर्जन्म का कारण है । हमारा पुनर्जन्म काम्य एवं निषिद्ध कर्मों के सम्पादन से होता है। वेद-विरुद्ध कर्म करने से अथवा अपनी इच्छायें पूर्ण करने के कारण होता है। उनके अनुसार मनुष्य मृत्यु के पश्चात् अपने किये गये कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक में जाता है तथा अपने फल का भोग प्राप्त करने पर या दुःख उठाकर वह वृक्ष रूप से जन्मता है । तत्पश्चात् तिर्यक् योनि में, पुन: यवन अथवा म्लेच्छ योनि में, पुनः निम्न जाति में एवं अन्त में ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है ६ । पुनर्जन्म को समस्त द:खों का स्थान तथा अशाश्वत या अस्थिर कहा गया है। समस्त लोक पनरावर्ती हैं अर्थात जिनमें जाकर पुनः संसार में जन्म लेना पड़ता है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी प्रारब्धवश पुनर्जन्म की परम्परा बनी रह सकती है। साधक को प्रारब्ध कर्मों के फल भोग की पूर्णता के लिये एक या अनेक जन्म ग्रहण करने पड़ते हैं। किन्तु प्रारब्ध कर्म के फलों के भोग की पूर्णता द्वारा शरीरान्त हो जाने पर जिसने परम प्रकाश के रूप को पा लिया है उस जीवात्मा का पुनरागमन नहीं होता तथा पुनर्जन्म की स्थिति से वह स्वतन्त्र हो जाता है । यही भाव गीता में भी अभिव्यक्त किया गया है कि 'मात्र एक मुझे (परमेश्वर कृष्ण) प्राप्त कर लेने पर पुनर्जन्म नहीं होता'४८ | जब कोई यह अनुभव कर लेता है कि सभी के समस्त वान के कारण हैं तब उसका मोह भंग हो जाता है तथा वह फलाशा का त्याग कर देता है। आत्मा का शरीर से गमन हो जाने पर शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के फल पूर्णतया समाप्त हो जाते हैं क्योंकि शरीर से इसके अलग हो जाने पर पुनः कोई कर्मफल अवशिष्ट नहीं रहता । छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि जब कोई शरीर रहित हो जाता है तब सुख व दुःख उसे स्पर्श नहीं करते४९ । कर्म भग
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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