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Vol. XXXIII, 2010
निम्बार्क के द्वैताद्वैत सिद्धान्त में कर्म की अवधारणा
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ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् भी कर्म की आवश्यकता - निम्बार्क के कर्मवाद में जब तक जीवन है तब तक कर्म करने की सम्भावना बनी रहती है क्योंकि कर्म करने के लिये शरीर का होना आवश्यक होता है । अतः उनके अनुसार भोग्यमान प्रारब्ध कर्मों के भोग की पूर्णता द्वारा शरीरान्त हो जाने पर ही सभी कर्मों का अन्त सम्भव है । विद्या प्राप्ति के पश्चात् भी प्रारब्ध कर्म जो फलीभूत हो रहे हैं आवश्यकतानुसार, वर्तमान जन्म में अथवा दूसरे जन्म में बने रह सकते हैं क्योंकि जब तक वे भुक्त नहीं होते वहाँ तक विदेह-मुक्ति नहीं होती । इस प्रकार यहाँ ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् भी कर्म करने की सम्भावना बनी रहती है क्योंकि जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति समस्त प्रकार के कर्मों के बन्धन से मुक्ति पाना है जो विना शरीरपात के सम्भव नहीं । इस प्रकार विद्या प्राप्त हो जाने पर भी व्यक्ति को प्रारब्धवश कर्म करना ही पड़ता है क्योंकि विना भोग के उन कर्मों का प्रणाश सम्भव नहीं है चाहे उसके लिये अनेक जन्म क्यों न लेना पड़े५१ । इस प्रकार प्रारब्ध कर्मों के पाप पुण्य रूप फलों को भोगकर ही ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। ज्ञानोत्पत्ति के पश्चात् विद्या के सामर्थ्य से ज्ञानी के शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों से अलगाव तथा विनाश हो जाता है । अर्थात् शुभ कर्मों से अलगाव तथा अशभ कर्मों का विनाश हो जाता है। किन्त काम्य कर्मों तथा निषिद्ध कर्मों के परिणामरूवरूप प्राप्त पुण्य एवं पाप रूपी फलों का ही क्षय होता है, अग्निहोत्रादि नित्य व नैमित्तिक कर्मों का नहीं । उनके अनसार ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी अग्निहोत्र, दान व तप आदि अपने आश्रम कर्मों से निवृत्ति नहीं
के ये विद्याप्राप्ति में सहायक हैं। अतः इन कर्मों के सम्पादन की आवश्यता सर्वदा बनी रहती है। विद्या के उदय के लिये गृहस्थ के द्वारा अग्निहोत्रादिरूप स्वाश्रमकर्म तथा जो शुद्धता से बंधे हुये हैं उनके द्वारा तपजपादि कर्म करने ही चाहिये१२ । वस्तुतः अग्निहोत्र, दान व तप आदि कर्मो का सम्पादन तो जीवनपर्यन्त करना आवश्यक है क्योंकि वे ज्ञान के पोषक हैं । शास्त्रों में यज्ञादि को ज्ञान का उत्पादकत्व सिद्ध किया गया है । अतः ज्ञानोपलब्धि के पश्चात् भी उपासना रूप कर्म की सम्भावना रहती है । वस्तुतः श्रुति में अग्निहोत्रादि नित्य तथा नैमित्तिक स्वाश्रम कर्मो को विशिष्ट माना गया है । अत: आश्रमकर्म तो जीवनपर्यन्त ही करने चाहिये उनका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि ये विद्या के पोषक स्वीकार किये गये हैं । इन कर्मों के जीवन पर्यन्त प्रतिदिन करने का विधान कहा गया है, उदाहरणार्थ-'उस इस परमात्मा को ब्राह्मण यज्ञ, दान, तप व व्रत आदि साधनों से जानने की इच्छा करते हैं' । तथा विद्या का तो प्रतिदिन तब तक उपार्जन करना चाहिये जब तक जीवन का अन्त न हो जाये५३ । यद्यपि सच्चा ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अग्निहोत्रादि नित्य तथा नैमित्तिक स्वाश्रम कर्मों का पालन करना आवश्यक नहीं है । अत: यद्यपि धर्मपालन करना विद्या प्राप्ति में सहायक है परन्तु अनिवार्य नहीं है । इतिहास में ऐसे अनेक व्यक्ति हुये हैं जो वर्णाश्रम धर्म पालन किये विना ही विद्या प्राप्त कर चुके हैं।४ । तथा ज्ञानी होते हुये भी जनक आदि ने कर्म से ही सिद्धि प्राप्त की थी५ । वस्तुतः अनासक्तभाव से भक्तियुक्त कर्म का अनुष्ठान करते हुये जब तक मुक्ति नहीं प्राप्त होती जीवन यापन किया जा सकता है। जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति कर्मों में आसक्त होकर कर्म करते हैं, ज्ञानी को उसी प्रकार अनासक्त होकर लोकसंग्रह करने के लिये अर्थात् विश्व कल्याण की भावना से भी कर्म करने चाहिये'६ । निम्बार्क ने क्रिया को गौण माना है क्योंकि उनके अनुसार यह