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रमानाथ पाण्डेय
SAMBODHI
सहायक साधन है तथापि क्रिया का पालन आश्यक है। साधनावस्था में तो क्रिया का महत्त्व है ही, सिद्धावस्था में भी यह आवश्यक है। इसका मुख्य कारण यह है कि संत पुरुषों के आचरण का सामान्य लोगों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है जिससे स्वस्थ एवं समृद्ध समाज का निर्माण होता है । क्रिया के पालन का एक अन्य कारण यह है कि क्रिया में शिथिलता आने पर पतन होने की सम्भावना रहती है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि निम्बार्क के दर्शन में विद्या प्राप्ति के पश्चात् भी कर्मों की उपयोगिता स्वीकार की गयी है । वस्तुत: शंकर के अद्वैत में ज्ञानप्राप्ति को ही मुक्ति का साधन माना गया है इसलिये वहा पनः करने के लिये कछ भी अवशिष्ट नहीं रहता। अतः ज्ञानोत्पत्ति के बाद कर्मों को वहाँ निरर्थक व निष्प्रयोजन कहा गया है । द्वैताद्वैत दर्शन जीवनमुक्ति के सिद्धान्त को नहीं स्वीकार करता है क्योंकि इसके अनुसार मुक्ति के लिये शरीरान्त होना आवश्यक है । जो सम्प्रदाय जीवनमुक्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं उनके समक्ष ज्ञानोपलब्धि के पश्चात् कर्म की उपपत्ति की विशेष समस्या रहती है । जबकि निम्बार्क के अनुसार कर्म बन्धन अनादि हैं, परमात्मा की अनुग्रह शक्ति से ही उनसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है । अत: परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये विद्या प्राप्ति के पश्चात् भी भक्तियुक्त कर्म करने की आवश्यकता तो बनी ही रहती है । भक्ति पाने के लिये श्रवण, मनन, निदिध्यासन रूप साधन कहे गये हैं जिससे चित्त की शुद्धि होती है।९ । परमात्मा के चरणों में सर्वात्म समर्पण कर देने से परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है वही मुक्ति का प्रधान साधन है ।
ज्ञान तथा कर्म का समच्चय - निम्बार्क ज्ञान-कर्म-समच्चय के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । मक्ति पाने के लिये गहस्थाश्रम का त्याग कर संन्यासी बनना आवश्यक नहीं है। यदि हम स्वधर्मों का पालन पूर्णतः निष्कामभाव से करें, उसके परिणामों को ईश्वर को समर्पित कर करते रहें तब उनसे हमारा चित्त शुद्ध होगा तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा । ज्ञान का उदय मात्र शुद्ध चित्त में ही हो सकता है। अतः वेद में विहित वर्णाश्रम धर्म में जो कर्म करने के निर्देश प्राप्त होते हैं उन्हें विविदिषा अर्थात् ज्ञान की इच्छा उत्पन्न करने के लिये करने चाहिये । यद्यपि सच्चा ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर पुनः इन कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक नहीं है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् जो भी कर्म सम्पन्न होते हैं उन कर्मों से ज्ञानी पुरुष प्रभावित नहीं होता । उपयुक्त समस्त विवेचन से स्पष्ट है कि विद्या एवं कर्म दोनों साथ-साथ मुक्ति मार्ग में सहायक हैं दोनों का पचास पचास प्रति शत बराबर का योगदान रहता है । अतः निम्बार्क ने मुक्ति के लिये ज्ञानकर्म समुच्चयवाद का सिद्धान्त स्थापित किया है। उन्होंने मुक्ति के लिये ज्ञानकर्म समुच्चयवाद की स्पष्ट व्याख्या अपने मंत्र रहस्य षोडशी में ब्रह्मविद्या की व्याख्या करते हुये स्थापित किया है । ज्ञानकर्मसमुच्चय की अवधारणा न तो पूर्णतया अद्वैत पर आधारित है और न ही पूर्ण द्वैत पर । यह तो व्यवहार्य द्वैताद्वैत मत का प्रतिपादन करता है। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति मात्र द्वैत या अद्वैत होकर इस संसार में नहीं रह सकता । द्वैताद्वैत के सिद्धान्त को तो सभी को किसी न किसी रूप में मानना ही पड़ेगा। भारत में सर्वप्रथम द्वैताद्वैत के रूप में ज्ञानकर्म समुच्चयवाद की स्थापना का श्रेय निम्बार्क को ही जाता हैं । आज भी इसी की आवश्यकता है । निम्बार्क क्रिया को सहायक मात्र मानते हैं मुख्य नहीं ।