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रमानाथ पाण्डेय
SAMBODHI
समर्थ नहीं हैं । वैदिक कर्म अपने तथा अन्य के स्वभाव से अनभिज्ञ तथा संसार के चक्र से उत्पीडित पुरुषों द्वारा और जो दूसरों पर निर्भर हैं उन्हीं के द्वारा किये जाते हैं, स्वतन्त्र रूप से फल देने में समर्थ नहीं है२६ । यहाँ तक कि 'यजेत स्वर्गकाम' (तैतरीयसंहिता-२.२.५) इत्यादि विधिवाक्यों के किसी अंश से भी कभी यह नहीं प्रतीत होता है कि कर्म ही स्वतन्त्र रूप से फल प्रदान करने वाले हैं । अपितु, इसके विपरीत, इस प्रकार के शास्त्र जैसे कि देवताओं की पूजा आदि, व्यक्ति को वैसे कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं, जो स्वर्ग की ओर ले जाता है । बादरायण का कथन है कि भोग व अपवर्ग रूप फल प्रदान करने वाला वही पूर्वोक्त सर्वात्मा, सर्वज्ञ परमात्मा ही है, क्यों ? क्योंकि 'उसी को सबका कारण कहा गया है', शास्त्रों में प्रचुरता से परमात्मा को ही कारण, कर्मों का प्रेरक तथा फलों का प्रदाता बताया गया है, उदाहरणार्थ - 'तथा वह अपनी इच्छाओं को उससे पा लेता है वे भोग मेरे (परमात्मा) द्वारा ही निश्चित किये हुये होते हैं । वही परमात्मा ही जिस व्यक्ति को उपर के लोकों में ले जाना चाहता है, उससे पुण्य कर्म करवाता है। पण्य कर्म के द्वारा पुण्य लोक को ले जाता है'२८ । यह जिसका वरण करता है, उसी से यह प्राप्त किया जा सकता है'२९ । गीता में भी यही वर्णित है । 'मैं ही वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे कि वे मेरे पास आते है ।
उपर्युक्त समस्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में निम्बार्क के कर्म सिद्धान्त की समीक्षा करने पर हम देखतें हैं कि कर्म तथा कर्मफल दोनों ही परमात्मा की अनुग्रह शक्ति से संचालित हैं । व्यक्ति शुभ अशुभ रूप जो भी कर्म करता है वह ईश्वर की प्रेरणा से ही करता है । कर्म करने में जीवात्मा स्वतन्त्र नहीं है। कर्मफल की व्यवस्था करने वाला भी परमेश्वर ही है। श्रुति तथा स्मृतियों में अनेक स्थलों पर कहा गया है कि वह सबका कारण है, तथा कारणों के स्वामी का स्वामी है, वह सभी का नियन्ता है, सभी का अधिष्ठाता है । अतः स्पष्ट है कि फल की प्राप्ति इसी परमेश्वर से ही होता है।
कर्मानुसार लोक लोकान्तरों में गति – साधक के लिये विषयोपभोगों की आसक्ति से विरक्त होना परम आवश्यक कहा गया है क्योंकि इनके उपभोग से ही व्यक्ति जन्म मरण के चक्कर में पड़ता है। शुभ या अशुभ कर्म पाप या पुण्य की प्राप्ति करवाते हैं जिनके फलस्वरूप स्वर्गादि लोकों में आवागमन होता रहता है, जिसके कारण ही व्यक्ति को बार बार जन्म लेना पड़ता है, उसकी मुक्ति नहीं होती जो कि वेदान्त दर्शन का चरम लक्ष्य है । जब जीवात्मा का स्थूल शरीर मृत हो जाता है तब अच्छे कर्म करने वाले जीवों की तथा दुष्ट कर्म करने वाले व्यक्तियों की क्या गति होती है ? इस विषय में द्वैताद्वैत दर्शन में स्पष्ट रूप से विचार प्रस्तुत किया गया है ।
शुभ कर्म करने वालों की गति – 'इष्टापूर्त यज्ञ में दान आदि कर्म से जो व्यक्ति उपकार रूप से जगत् स्वरूप परमात्मा की उपासना करते हैं, वे शरीर का त्याग करने के पश्चात् धूम होकर चान्द्रमसी गति प्राप्त करते हैं।' इस कथन से धूममार्ग द्वारा चन्द्रलोक की प्राप्ति कही गयी है, तथा जीव को चन्द्रलोक का राजा भी कहते हैं, 'यह सोम राजा होता है'३३ । जो व्यक्ति मात्र कर्म को ही महत्त्व प्रदान करते हैं, तथा अनात्मवादी हैं अर्थात् परमात्मा पर विश्वास न रखकर उद्योगशील, साकार जगत् को ही देवता स्वरूप मानकर सेवा करते हैं, ऐसे इष्टापूर्त अर्थात् सकाम कर्म करने वाले को 'वे देवताओं के अन्न हैं, देवता