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________________ Vol. XXXIII, 2010 निम्बार्क के द्वैताद्वैत सिद्धान्त में कर्म की अवधारणा कहे जाते हैं । मुक्त जीव इस प्रकार भगवान् में उसकी विशिष्ट शक्ति के रूप में रहते हैं, जिन्हें वे अपने लिये पुनः उपयोग कर सकते हैं । ऐसे मुक्त पुरुष सांसारिक जीवन जीने के लिये पुनः कभी नहीं भेजे जाते । यद्यपि मुक्त पुरुष भगवान् से एक हो जाते हैं तथापि उनका जगत् के व्यवहार पर कोई अधिकार नहीं होता वह तो सर्वदा भगवान् द्वारा ही नियन्त्रित होता है । इस प्रकार परमात्मा से समता रहने पर भी मुक्त जीव सृष्टि के सम्पर्क से रहित ही है । परमात्मा मायाधीश है, मुक्तात्मा मायातीत, तथा बद्धात्मा मायाधीन, यही इसका तात्पर्य है । कर्मफल - कर्म तथा कर्मफल का सम्बन्ध जीवात्मा से है। जीवात्मा को कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। परमात्मा जीवों को उनके अपने यथायोग्य कर्मानुसार फल प्रदान करता है। जो व्यक्ति जिस प्रकार का कर्म करता है वह उसी प्रकार का फल पाता है, क्योंकि परमात्मा सर्वज्ञ है, अतः उसीमें फल प्रदान करने का सामर्थ्य है१६ । यदि व्यक्ति शुभ कर्म करता है तो परमात्मा उसे शुभ फल तथा अशुभ कर्म करता है तो अशुभ फल प्रदान करता है । व्यक्ति स्वयं ही फल प्राप्त करने में समर्थ नहीं है। गीता में भी इसीलिये कहा गया है कि 'कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फल में नहीं। ब्रह्म को पाप से मुक्त, नित्य तथा अनन्त, कल्याण गुणकारी, असाम्य या श्रेष्ठतम, शून्यत्वादि गुणों से युक्त कहा गया है । अब ब्रह्म का एक विशिष्ट गुण परम, अर्थात् फलों का प्रदाता होना बतलाते हैं। परमात्मा ही भोग या मुक्ति रूप फल जो जिस फल को पाने का अधिकारी है उसे उसी के अनुरूप परमात्मा (श्रीपुरुषोत्तम) से ही प्राप्त होता है क्योंकि मात्र श्रीपुरुषोत्तम ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् तथा सर्वनियन्ता होने से इस प्रकार के फलों के प्रदाता हो सकते हैं१९ । श्रुति से भी यही बात प्रमाणित होती है कि कर्मफल की व्यवस्था करने वाला परमेश्वर ही है । वही वास्तव में फल का प्रदाता कहा गया है, उदाहरणार्थ - 'वही, वास्तव में, महान है, अजन्मा है, अन्न खाने वाला है तथा धन प्रदान करने वाला है, यही तो जीवात्मा को आनन्दित करता है। अतः उसीसे फल उत्पन्न हो सकता है । पूर्व मीमांसा के आचार्य जैमिनि मानते हैं कि धर्म (कर्म) ही फल का कारण है, कोई अन्य कारण नहीं हो सकता। उनके अनुसार कृषि आदि कर्म में धर्म को ही फल का कारण मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । श्रुति में भी 'स्वर्ग की इच्छा करने वाले को यज्ञ करना चाहिये' आदि विधिवाक्यों से सिद्ध होता है कि यज्ञादि धर्म ही फल के हेतु हैं। इस प्रकार आचार्य जैमिनि का विचार है कि अपूर्व नामक व्यापार के माध्यम से मात्र कर्म अथवा धर्म, ही फल का हेतु माना जा सकता है। याग की उत्तर अवस्था में होने वाले व्यापार विशेष को अपूर्व कहा जाता है । मीमांसा दर्शन का विचार ब्रह्मसूत्रकार को स्वीकार नहीं है, उनके अनुसार परमात्मा ही फल प्रदान करने वाला है क्योंकि उसी को सबका कारण बताया गया है२३ । निम्बार्क का विचार है कि वेदाचार्यों के मत में भी फल देने वाला परमात्मा ही है 'पुण्यकर्म के परिणामस्वरूप पुण्यलोक को ले जाता है. तथा 'यह जिसकी प्राप्ति की इच्छा करता है उसके द्वारा ही इसकी प्राप्ति हो सकती है।' आदि कथनों में परमात्मा को ही उसका कारण माना गया है। अतः स्पष्ट है कि परमेश्वर ही जीवों को कर्मानुसार फल प्रदान करता है । कृषि आदि कर्मों में भी कर्म स्वतन्त्र रूप से कृषक को तीनों कालों अर्थात् भूत, वर्तमान या भविष्य में अन्न की उत्पत्तिरूप फल नहीं देता है, अपितु वहाँ भी परमेश्वर ही उसका फल प्रदान करता है । उसी प्रकार यज्ञादि वैदिक कर्म भी स्वतन्त्र रूप से फल देने में
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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