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________________ 90 रमानाथ पाण्डेय SAMBODHI जीवात्मा का स्वरूप - निम्बार्क के अनुसार जीव ब्रह्म (कृष्ण) से भिन्न है क्योंकि ब्रह्म से पृथक् उनकी सत्ता नहीं है। इस सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा, परमात्मा (ईश्वर या जड़) तथा प्रकृति ये तीन तत्त्व हैं और ये तीनों आपस में भिन्न-भिन्न हैं। जीव तथा प्रकृति दोनों परमात्मा के अधीन हैं, तथा परमात्मा ओत-प्रोत भाव से जीव एवं जड़ में वर्तमान है। बिना परमात्मा के इन दोनों की स्थिति ही सम्भव नहीं है । परमात्मा से उनका इतना ही अन्तर है जितना कि जल का उसके तरंग से । अत: एक प्रकार से ये अभेदवादी भी हैं । अतः यहाँ कर्म की व्याख्या जीवों के स्वरूप प्रतिपादन के सन्दर्भ में ही की गयी है । जीव द्रष्टा, भोक्ता, कर्ता एवं श्रोता भी है। यह अणु है तथापि समस्त शरीर के सुखदुःख का अनुभव करता है, इसी से समस्त शरीर में प्रकाश भी है। अणु होने पर भी गुणों के कारण भी है। किन्तु इसमें सर्वगतत्व नहीं है, जीव स्वतन्त्र नहीं है। वह अपने ज्ञान, कर्म, मोक्ष तथा बन्धन सभी के लिये ईश्वर पर निर्भर है । परमात्मा के अनुग्रह से सज्जन लोग जीवात्मा का भी ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं१२ । जीव में एक साथ बन्धन व मुक्ति दोनों ही पाया जाता है । यह जीव सांसारिक आसक्ति से नित्य बद्ध तथा अनासक्ति से 'नित्य मुक्त रहता है । इस प्रकार मुख्यरूप से जीव दो प्रकार के हैंबद्ध एवं मुक्त जीवों के भी अनेक भेद हैं१२ । बद्ध जीव – सांसारिक वासनाओं में जो नित्य आबद्ध हैं, वे ही बद्ध प्राणी हैं जो कि लोकेषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा भोगों में सदा रत रहने वाले बुभुक्षु होते हैं । ये जीव अनादि कर्म एवं वासना के फलस्वरूप देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि का शरीर धारण कर उसमें आत्मा अथवा आत्मीय वस्तु का दृढ़ अभिमान रखते हैं । जो वासनाओं से छूटने के लिये नित्य भगवदुपासना में रत रहते हैं, तथा अनासक्ति भाव से कर्तव्य कर्मों का आचरण करते हैं, ऐसे बुभुक्षु जीव भी शरीर त्याग की अवधि तक देह बद्ध हैं । ये जीव वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुये मरने के पश्चात् अपने अवशिष्ट कर्मों के फल भोग के लिये पुनः जन्म ग्रहण करते हैं । एक शरीर से अन्य शरीर में जाने के समय जीव सूक्ष्म भूतों से मुक्त रहते हैं । मुक्त जीव – बद्ध जीव के अतिरिक्त जो जीव हैं उन्हें 'मुक्त' कहा गया है । मुक्त जीव दो प्रकार के हैं । प्रथम प्रकार के मुक्त जीव को नित्यमुक्त कहा गया है । जो उपासना के द्वारा जगत् से एकदम छुटकारा पाकर सदा भगवद्धाम भगवत्सान्निध्य में स्वभाव स्वरूप से रहते हैं, वे नित्य मुक्त हैं। जैसे गरूड, विष्वक्सेन, भगवान के विविध आभूषण जैसे वंशी आदि । दूसरे प्रकार के मुक्त जीव वे हैं जो सत्कर्म करते हुये पूर्व-जन्म के कर्मों का भोग संपन्न कर संसार के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने के उपरान्त ये सभी अचिरादि-मार्ग से पर ज्योतिः स्वरूप में आविर्भूत होते हैं तथा पुनः लौटकर इस संसार में नहीं आते । इनमें से कोई तो ईश्वर-सादृश्य को प्राप्त करते हैं तथा कोई अपनी आत्मा के स्वरूप के ज्ञान मात्र से ही तृप्त हो जाते हैं । वस्तुतः मुक्त जीव भी भोग भोगते हैं । इसके लिये जीव को अपना कोई शरीर धारण करना आवश्यक नहीं है । स्वप्न के समान भगवत् सृष्ट शरीर आदि के द्वारा कदाचित् भगवान् की लीला के अनुसार मात्र संकल्पमार्ग से ही शरीर उत्पन्न कर मुक्त जीव भोग प्राप्त करते हैं | जो जीव अनुक्षण भावावस्था में निमग्न रहते हैं वे कर्म मुक्त, वासना मुक्त
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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