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Vol. XXXIII, 2010
निम्बार्क के द्वैताद्वैत सिद्धान्त में कर्म की अवधारणा
वह ब्रह्म से भिन्न ही है। जीवात्मा असंख्य एवं अणु परिमाण के हैं, प्रत्येक आत्मा ब्रह्म की किरण के तुल्य है । जीव की प्रकृति कर्म के आधिन है, कर्म अविद्या का परिणाम है । कर्म बन्धन अनादि हैं किन्तु परमात्मा की अनुग्रह शक्ति से उनसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है। परमात्मा के चरणों में सर्वात्म समर्पण कर देने से परमात्मा का अनुगह प्राप्त होता है जो कि मुक्ति का प्रधान साधन है। कर्म सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में सृष्टि की रचना प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर हम देखते हैं कि परमात्मा सृष्टि की रचना केवल लीला के लिये करता है। जिस प्रकार सिद्ध महापुरुष निष्कामभाव से बिना किसी प्रयोजन के ही संसार में कल्याणकारी कर्म करते हैं उसी प्रकार परमात्मा भी संसार की रचना लीलामात्र के लिये ही करता है। परमात्मा यद्यपि कर्म के वशीभूत नहीं है तथापि वह दूध से जैसे दही या जल जैसे बर्फ का निर्माण होता है उसी प्रकार परमात्मा भी प्राकृतिक शक्ति से स्वतः जगत् रूप में परिणत होता है । जिस प्रकार देव, गंधर्वादि संकल्प (इच्छा) मात्र से अपने मनोनुकूल पदार्थ की रचना कर लेते हैं इसी प्रकार भगवान् भी संकल्प मात्र से सृष्टि करते हैं । द्वैताद्वैत के कर्मसिद्धान्त के अनुसार जगत् में जो विचित्रिता दृष्टिगोचर होती है उसका कारण कर्म नहीं अपितु परमात्मा है, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परमात्मा निर्दय है क्योंकि वह प्राणियों में भेदभाव उत्पन्न करता है । वस्तुतः परमात्मा तो जीवों के अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार ही विचित्रपूर्ण विभिन्न अवस्थायें व विविध प्रकार की गतिविधियों को बनाता है। उसी के कारण मनुष्य होते हुए भी मनुष्य रूपवालों में हीनता तथा उत्तमता दिखलायी पड़ती है। कोई अल्पायु, दीर्घायु, बहुरोगी, अल्परोगी, कुरूप, रूपवान, असमर्थ, समर्थ, गरीब, अमीर, मूर्ख, बुद्धिमान् तथा प्रज्ञावान् मनुष्य दिखलायी पड़ते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि सृष्टि संहारादि की विषमता एवं दुःखानुभूति जीव को अपने अपने अपने कर्मों के अनुसार परमात्मा ही प्रदान करता है । जिस प्रकार बीज के ठीक या गलत बोने पर ही खेती का परिणाम ठीक या गलत होता है उसी प्रकार जीव जैसा कर्म करेगा उसी प्रकार परमात्मा उसे फल भी प्रदान करेगा । श्रुति में भी कहा गया है कि 'शुभ कर्म करने पर पुण्य तथा अशुभ कर्म करने पर पाप का भागी बनता है' सृष्टि अनादि एवं अनन्त है । प्रलय के पूर्व भी सृष्टि थी, उसमें जिस प्रकार लोगों के पुण्य पाप कर्म थे उसी के अनुसार परमात्मा पुनः सृष्टि की रचना करते हैं। वास्तव में जीवात्मा तथा उनके कर्म अनादि हैं क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं मानेंगे तो प्रलयकाल में परमात्मा को प्राप्त हुये जीवों के पुनरागमन को स्वीकार करना पड़ेगा या प्रलयकाल में सभी जीव स्वंय ही मुक्त हो जाते हैं, यह स्वीकार करना पड़ेगा जो कि तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। शास्रों में भी जीवात्मा व उनके कर्मों को अनेक स्थलों पर अनादि ही कहा गया है - 'धाता ने सूर्य एवं चन्द्रमा जिस प्रकार पूर्व की सृष्टि में थे उसी प्रकार पुनः बना दिये' । जीवात्मा तथा उनके कर्मों के अनादि सिद्ध हो जाने से उनका विभक्त होना आवश्यक माना जाना चाहिये । इस प्रकार कर्मों की अपेक्षा के कारण परमात्मा को सृष्टि का कर्ता मानना ही उचित है, अतः परमात्मा कर्ता है तथा सृष्टि कर्म है । वेदान्त दर्शन संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण भेद से कर्मों के तीन भेद स्वीकार करता है । पूर्वकाल में किये गये कर्म संचित कर्म हैं जिनका फल मिलना अभी प्रारम्भ नहीं हुआ है । तथा पूर्व के वे कर्म प्रारब्ध की कोटि में आते हैं जिनका फल मिलना प्रारम्भ हो चुका है । वर्तमान में किये गये कर्म संचीयमान या क्रियमाण कर्म है जिनके फल का सम्बन्ध भविष्य के जीवन से है ।