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सागरमल जैन
फिर भी 'आर्यावती' आर्हतों अर्थात् जैनों के लिए किस रूप में उपास्य थी, यह प्रश्न अनुत्तरित
ही रहता है ।
द्वितीय फलक
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यह फलक एक कोने से खण्डित है । इसके उपर के भाग में मध्य में स्तुप और दोनों ओर दोदो तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण है । इस भाग के उपर की ओर और नीचे की ओर अभिलेख अंकित है । उसके नीचे दायी ओर 'आर्यावती' का शिल्पांकन है जो प्रायः फलक के समान ही है; आर्यावती के समीप एक जैन मुनि (आर्यकण्ह) खड़े हुए हैं। उनके एक हाथ में पिच्छिका है, यह हाथ उपर उठा हुआ है, दूसरे हाथ में कम्बल और मुखपत्रिका है, जिससे वे अपनी नग्नता छिपाए हुए है। उनके समीप छोटे आकार के तीन व्यक्तियों का अंकन है । उनमें उपर की ओर जो व्यक्ति खड़ा है वह हाथ जोड़े हुए है, किन्तु उसके सिर पर फनावली अंकित है। नीचे मेरी दृष्टि में कोई साध्वी अंकित है, जिसके एक हाथ में पिच्छिका और दूसरे हाथ में मुखपत्रिका अस्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं उसके पास कोई स्त्री खड़ी है और अपने हाथ से आर्यिका का स्पर्श करती हुए या हाथ जोड़े हुए है। चूंकि इस फलक का सम्बन्ध स्पष्टतः आर्यकण्ह के साथ है, मेरी दृष्टि में यही कारण है कि गृहस्थ उपासक के रूप में सर्पफनावली' साथ बलराम को अंकित किया गया हो । क्योंकि हिन्दू परम्परा में कृष्ण के साथ बलराम इसी रूप में अंकित किया जाता हैं । आर्यकण्ह का उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली के साथ-साथ आवश्यकभाष्य में विस्तार से मिलता है । वस्त्र प्रश्न को लेकर उनका शिवभूति से जो विवाद हुआ था, वह भी सर्वज्ञात हैं यहां मैं उस चर्चा में नहीं जागाँ । यहाँ हमारा विवेच्य तो 'आर्यावती' की पहचान ही है ।
सरस्वती प्रतिमा और इन दोनों फलकों में एक बात विशेष रूप से चिन्तनीय है कि इन दोनों फलकों और सरस्वती की प्रतिमा में गृहस्थ को ही हाथ जोड़े हुए मुद्रा में दिखाए गए हैं, मुनि को नहीं । मुनि मात्र अपनी उपधि (सामग्री) के साथ स्थित है ।