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सागरमल जैन
SAMBODHI
__इन आधारों पर हम इतना ही कह सकते हैं कि अर्धमागधी आगम साहित्य में प्रारम्भ में सरस्वती का उल्लेख मलतः जिनवाणी या श्रत के विशेषण के रूप में ही हआ है। यद्यपि अर्धमागधी आगम साहित्य में 'नमो सुयदेवया भगवईए' इतना ही पाठ है । किन्तु यह श्रुतदेवता सरस्वती रही होगी, ऐसी कल्पना की जा सकती है क्योंकि भगवतीसूत्र (९/३३/१४९ तथा १६३) में सरस्वतीजिनवाणी के एक विश्लेषण के रूप में उल्लेखित है । सर्वप्रथम जैनों में जिनवाणी रूप श्रुत (सुय) को स्थान मिला और उसे 'नमो सुयस्स' कहकर प्रणाम भी किया गया । कालान्तर में इसी श्रुत के अधिष्ठायक देवता के रूप में श्रुतदेवी की कल्पना आई होगी और उस श्रुतदेवी को भगवती कहकर प्रणाम किया गया । किन्तु यह सब एक कालक्रम में ही हुआ होगा । श्रुत से श्रुतदेवता और श्रुतदेवता से सरस्वती का समीकरण एक कालक्रम में हुआ है ।
इसी क्रम में श्रुतदेवता को भगवती विशेषण भी मिला और इस प्रकार श्रुतदेवी को भगवती सरस्वती मान लिया गया । ज्ञातव्य है कि 'भगवती' और 'भगवान' शब्द का प्रयोग भी अर्धमागधी आगम साहित्य में मात्र आदरसूचक ही रहा है वह देवत्व का वाचक नहीं है। क्योंकि प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा को 'भगवती' (अहिंसाए भगवईए) और सत्य को 'भगवान' (सच्च रव भगवं) कहा गया है । यहाँ ये व्यक्तिपरक नहीं मात्र अवधारणाएँ है । अत: प्राचीन काल में भगवती श्रुतदेवी भी मूलतः जिनवाणी के रूप में मान्य की गई होगी । यहाँ 'नमो' शब्द भी उसके प्रति आदर भाव प्रकट करने के लिए ही है क्योंकि ऐसा ही आदरभाव तो 'नमो बंभीए लिवीए' कहकर ब्राह्मी लिपि के प्रति भी प्रकट किया गया है । वह कोई देव या देवी नहीं है ।
__ किन्तु यह ज्ञातव्य है कि जब जैन देवमण्डल में शासन-देवता एवं विद्या-देवियों का प्रवेश हुआ तो उसके परिणाम स्वरूप 'श्रुत-देवता' की कल्पना भी एक 'देवी' के रूप में हुई और उसका समीकरण हिन्दू देवी सरस्वती से बैठाया गया । यह कैसे हुआ ? इसे थोड़े विस्तार से समझने की आवश्यकता है । जिनवाणी 'रसवती' होती है। अतः सर्वप्रथम सरस्वती को जिनवाणी का विशेषण बनाया गया (स+रस+वती) । फिर सरस्वती श्रुतदेवता या श्रुतदेवी बनी और अन्त में वह सरस्वती नामक एक देवी के रूप में मान्य हुई । अज्ञान का नाश करने वाली देवी के रूप में उसकी उपासना प्रारम्भ हुई । भगवतीसूत्र के लिपिकार (लहिये) की अन्तिम प्रशस्ति गाथाओं ईसा की ५ वीं शती पश्चात् हमें एक गाथा उपलब्ध होती है जिसमें सर्वप्रथम गौतम गणधर को, फिर व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) को, तदनन्तर द्वादश गणिपिटक को नमस्कार करके. अन्त में श्रुतदेवी को उसके विशेषणों सहित न केवल नमस्कार किया गया, अपितु उससे मति-तिमिर (मति-अज्ञान) को समाप्त करने की प्रार्थना की गई । वह गाथा इस प्रकार है
कुमुय सुसंठियचलणा अमलिय कोरट विट संकासा । सुयदेवयाभगवती मम मति तिमिरं पणासेउ ॥
-भगवतीसूत्र के लिपिकार की उपसंहार गाथा-२