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Vol. XXXIII, 2010
जयपुर नरेशों का संगीत प्रेम
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महाराज के पहले उस्ताद करीम बख्शजी (हैदर बख्शजी के भाई), मोहम्मद अली खाँ (मनरंग के पोते), बहराम खां जी (धग्गे खुदाबख्श के बेटे), ताऊस खां जी कल्लन खां (धग्गे खुदाबख्श के बेटे), मंजी खां इमरत सेन जी (तानसेजी की छोटी बेटी की औलाद), आलम सेन जी (अमीर सेन जी के भाई), अमीर खां, मम्मू खां जी, वजीर खां जी, छोटे खां जी, इलाही बख्श (हैदर बख्श जी के भाई), लाल सेन जी सेनिये, मुबारक अलीखां साहब (बडे मोहम्मद खां रीवां वालों के बेटे), रजब अली खां अलवर वाले आदि कलाकारों का वहाँ मुकाम था ।"३३
महाराज रामसिंह बड़े संगीत प्रेमी थे तथा स्वयं अच्छा संगीत ज्ञान रखते थे । ये कुशल वीणा वादक थे । तत्कालीन प्रसिद्ध संगीत विद्वान करामत अली खाँ इनके गुरु थे, जो उच्चकोटि के गायक थे। इनको राजदरबार में अत्यंत सम्मान प्राप्त था । इनको अन्य परस्कारों, जागीरों के अतिरिक्त पालकी का सम्मान भी प्राप्त था ।३४ जयपुर में पानों के दरीबों के मुहल्ले में 'रजब अली की हवेली' के नाम से यह हवेली आज भी जानी जाती है।
महाराजा रामसिंह ही एक ऐसे संगीत प्रेमी कला संरक्षक थे जो स्वयं संगीत कार्यक्रमों में सक्रिय भाग लेते थे ।२६ शास्त्रीय संगीत की प्रकाण्ड परम्परा, ध्रुपद शैली के धनी डागर परिवार को जयपुर लाने का श्रेय सवाई रामसिंह को ही जाता है। इन्होंने ही डागर परिवार को अलवर से जयपुर राज्य में पधारने का निमन्त्रण दिया था । ध्रुपद गायिकी के सिरमौर उस्ताद बहराम खाँ डागर पहले पंजाब में सिख राजा रणजीतसिंह के दरबार में थे। तत्पश्चात् ये अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के राज्य में आ गये। १८५७ ई. में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के काल में उस्ताद अलवर आ गये थे । जहाँ से अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में वे जयपुर दरबार में आये । महाराजा ने इनमे भी संगीत शिक्षा ग्रहण की ।
सवाई रामसिंह के काल में गुणीजन खाना स्वनाम धन्य था । रामसिंह कालीन महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों से प्रमाणित होता है कि उनके समय में गुणीजन खाने में १८९ संगीतज्ञ थे। इनमें ६३ कलावंत, २१ सारंगिये, १७ पखावजी, १९ हालुका, ४ जांगड़, ५ रासधारी, २ करताली, २ मारचंग्या एवं ४९ भगतन थी। यह सब गुणीजन वेतन भोगी थे ।३८ ।
गुणीजन खाने में १८९ कलाकारों के अतिरिक्त अनेक कुशल काष्ठशिल्पी तथा हस्त शिल्पी भी नियुक्त किये थे, जो वाद्यों के रख-रखाव तथा मरामत का कार्य देखते थे तथा नवीन वाद्यों का निर्माण भी करते थे । महाराज के समय के प्रमाणित दस्तावेज बताते हैं कि कलाकारों की मृत्यु हो जाने पर उनकी विधवाओं तथा आश्रितों को पेंशन दी जाती थी ।३९
शास्त्रीय परम्परा के साथ महाराजा नवीन प्रयोगों को भी प्रोत्साहित करते थे । १८७८ ई. बम्बई से आई एक पारसी नाटक कम्पनी ने जयपुर में महाराजा द्वारा बनवाये गये 'रामप्रकाश' थियेटर में 'गुलबकावलि' नाटक का मंचन किया । नाटक की समाप्ति पर महाराजा ने प्रसन्न होकर समस्त कलाकारों को पुरस्कार में धनराशि प्रदान की और शॉल ओढ़ा कर सम्मानित किया । जयपुर दरबार की नृत्यांगनाएँ तथा पातुरें तत्कालीन पारसी थियेटरों में काम करती थीं । यह भी कहा जाता है कि एक पारसी शिक्षक इनको अभिनय प्रशिक्षण देने के लिये नियुक्त किया गया था ।
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