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जयपाल विद्यालंकार
SAMBODHI
संस्कृत शब्द है समृद्धि । प्राकृत में इसका रूप परिवर्तित होकर हुआ समिद्धी या सामिद्धी । यहां मृ का उच्चारण प्रकृत व्यक्ति के लिये सहज नहीं होने से उसने अपनी सुविधानुसार ऋ को हटा कर इकार कर लिया तथा प्रयत्न की पूर्णता के लिये अन्तिम इकार को दीर्घ कर लिया। वैय्याकरण को यहां सूत्र बनाना पडा-इदृष्यादिषु १-२८ । यह नियम सार्वत्रिक न होकर कुछ शब्दों तक ही सीमित है। मेरे विचार से इस सूत्र को याद करने की कोई आवश्यकता नहीं है जैसे समृद्धि समझ में आता है वैसे ही समिद्धी या सामिद्धी।
संस्कृत शब्द है प्रतिपदा तथा प्राकृत रूप है पडिवआ । दिल्ली के देहात में बोला जाता है पडुवा। यहां सर्वत्र लवराम् (३-३) से रकार लोप, पो वः (२-१५) से प् को व् तथा कगचजतदपयवां प्रायो लोपः (२-२) से द का लोप होता है । यह प्रक्रिया कठिन तो है ही अनावश्यक भी है। आप स्वयं क्षण भर के लिये प्रकृतजन बनकर प्रतिपदा का उच्चारण कीजिये यह पडिवआ ही होगा।
अरण्यम्-रण्णं यहां लोपो रण्ये (१-४) से आदि अकार का लोप, अधो मनयाम् (३-२) से यलोप, शेषादेशयोर्तुित्वमनादौ (३-५०) से द्वित्व और सोबिन्दुर्नपुंसके (५-३०) से बिन्दु हुआ है । पर यह प्रक्रिया अनावश्यक तथा लम्बी है।
मयूरः – मोरो यहां अत ओत् सोः (५-१) से स् को ओकार, मयूरमधूखयोर्खा (१-८) से यकार सहित अकार को ओकार होता है ।
चतुर्थी-चोत्थी, चउत्थी यहां चतुर्थीचतुर्दश्योस्तुना (१-९) से तु सहित आदि अकार को ओत्व, सर्वत्र लवराम् (३-३) से रकार लोप, शेषादेशयोमार्द्वित्वमनादौ (३-५०) से थ को पहले द्वित्व तथा वर्गेषु युजः पूर्वः (३-५१) से तकार होने पर रूप बना है।
इस प्रकार अधिकांश शब्दों के स्वरूप को शायद व्याकरण की अपेक्षा भाषा के सुखोच्चारण सिद्धांत की सहायता से सरलता से समझा जा सकता है। इस प्रकार के अन्य सरल शब्द हैं-शय्या (सेज्जा), लवणम् (लोणं), चतुर्दशो (चोद्दही), हालिक: (हलिओ हालिओ), वृश्चिक: (बिच्छुओ), सिंहः (सीहो), द्वितीयम् (दुइअं), तृतीयम् (तइअं), गभीरः (गहिरं), उलूखलम् (ओखल), मुकुटम् (मउड), पुरुषः (पुरिसो), नूपुरम् (नेउर), वृक्षः (रुक्खो), देवरः (दिअरो देअरो), यमुना (जउणा), चन्द्रिका (चन्दिआ)। इन प्राकृत शब्दों के संस्कृत रूप को जानने के लिए व्याकरण के सूत्रों की अपेक्षा बार बार प्राकृत-संदर्भ का पठन सम्भवतः अधिक उपयोगी होगा। शब्दों के बाद कुछ पद्यों को समझते हैं
अत्थणिवेसा ते ज्जेब्ब सद्दा ते ज्जेब्ब परिणमंतावि । कर्पूर. १-७
अर्थनिवेशास्त एव शब्दास्त एव परिणमन्तोऽपि । संस्कृतम् भाषा के कारण परिवर्तन होने पर भी अर्थ तो वही रहता है और शब्द भी वही रहता है । शब्द का स्वरूप मात्र परिवर्तित होता है।
परसा संक्किअबंधा पाउदबंधो वि होउ सुउमारो । कर्पूर. १-८ परुषा संस्कृतबन्धाः प्राकृतबन्धोऽपि भवति सुकुमारः । संस्कृतम्