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Vol. XXXIII, 2010
प्राकृत भाषा : जितनी सहज उतनी सरल
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आदि होता है। प्रकृत जनों की बहुलता के कारण उन के व्यवहार की बोली भी इस बदलाव के कारण अनेक प्रकार की हो जाती है । वररुचि ने प्रमुख रूप से प्राकृत-पैशाची-मागधी और शौरसेनी यह चार प्रकार इस जन-भाषा के बताये हैं । प्राकृतप्रकाश के प्रथम नौ परिच्छेदों में प्राकृत व्याकरण और बाद में एक एक परिच्छेद क्रमशः पैशाची, मागधी तथा शौरसेनी व्याकरण को दिया गया है । पैशाची और मागधी की प्रकृति शौरसेनी तथा शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत को बताया है। वररुचि तथा अन्य सभी वैय्याकरण प्राकृत की प्रकृति संस्कृत को ही मानते हैं । हेमचन्द्र इन चार भेदों के अतिरिक्त पैशाचिक चूलिका, आर्ष प्राकृत तथा अपभ्रंश भेदों को मिलाकर कुल सात प्रकार प्राकृत के मानते हैं। प्राकृतसर्वस्वकार मार्कण्डेय भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची ये चार भेद करके पुनः भाषा के महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती तथा मागधी में ही अर्धमागधी का अन्तर्भाव करके मागधी ये पांच भेद करते हैं । विभाषा में वे शाकारी, चाण्डाली, शावरी, आभीरिकी, शाक्की (शाखी) यह पांच भाषाएँ मानते हैं । वस्तुतः स्थान भेद तथा प्रकृति विकृति के आधार पर यह भेदोपभेद बहुत विस्तृत होता रहा है। काव्यशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वान आचार्य दण्डी, जो भामह के लगभग समकालिक हैं, ने काव्यादर्श में समस्त वाङ् मय को पहले संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र चार भागों में विभक्त किया फिर एक सूत्र प्राकृत के विभाजन का दिया है-तद्भवस्तदसमो देशीत्यनेकः प्राकृतक्रमः । प्रकृतिप्रत्यय आदि की प्रक्रिया से जिसकी व्याख्या कर दी गई वह संस्कृत भाषा है तथा प्रकृत अर्थात् ग्राम्यजनों के व्यवहार की भाषा प्राकृत है । यह प्राकृत तद्भव, तत्सम और देशी के भेद से अनेक प्रकार की है । तद्भवः अर्थात् संस्कृतोद्भव जैसे हत्त (हस्त) कण्ण (कर्ण) इत्यादि । तत्समः अर्थात् संस्कृतसमः यथा कीर: गौः इत्यादि । देशी अर्थात् किसी प्रदेश में रूढ आंचलिक भाषा के शब्द यथा चस्सिस्सी (काञ्चनम्) दोग्घट (गजः) । आचार्य दण्डी ने एक महाराष्ट्री प्राकृत में ही यह वैविध्य प्रदर्शित किया है। यह केवल उदाहरण स्वरूप है सभी प्रकृतभाषाओं में इस त्रिविधता को देखा जा सकता है। दण्डी ने प्राकृत भाषाओं में महाराष्ट्री प्राकृत को उस समय की सेतुबन्ध आदि रचनाओं के उत्तमकोटि का होने के कारण श्रेष्ठ बता कर शौरसेनी मथुरा के आसपास के प्रदेश की भाषा, गौडी बंगाल के पास के प्रदेश की भाषा, लाटी कर्नाटक के समीपस्थ प्रदेश की भाषा, तथा इस प्रकार की अन्य मागधी अवन्तिजा प्राच्या अर्धमागधी बालीका दाक्षिणात्या इत्यादि सब भाषाओं को प्राकृत कहा। वस्तुतः प्राकृत में देश भेद से स्वरूपभेद हुआ और रचना की दृष्टि से जो भेद महत्त्वपूर्ण हो गया वह एक स्वतन्त्र भेद के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । आचार्य दण्डी ने इन सब भाषाओं को प्राकृत कहा । . प्राकृत भाषा को समझने की कुंजी व्याकरण के सूत्रों के माध्यम से न होकर आचार्य दण्डी के इस सूत्र में है कि प्राकृत भाषा के सभी शब्द तद्भव, तत्सम या देशी की श्रेणी में आते हैं । राजशेखर ने कर्पूरमञ्जरी के आरम्भ में ही कहा-भाषा के कारण स्वरूप परिवर्तन होने पर भी शब्द तो वही रहता है, उसके अर्थ में भी बदलाव नहीं आता शब्द का स्वरूप मात्र बदलता है। प्राकृत सीखने का उद्देश्य प्राकृत में निबद्ध ग्रंथो का अर्थ समझना है । इसके लिये शब्द के स्वरूप की अपेक्षा उसके अर्थ को समझना प्रथम आवश्यकता है। व्याकरण से हम शब्द के स्वरूप को समझते हैं अर्थ का ज्ञान तो अन्यथा ही होता है। उदाहरण के लिये कुछ प्रचलित शब्दों को लेते हैं-(सभी सूत्रनिर्देश प्राकृतप्रकाश से हैं)