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पदपाठकार ने यहाँ तद्धितान्त शब्द के जिन दो ( प्रकृति तथा प्रत्यय) अंशो को पृथक् करके पदपाठ में दिखलाये है, इन में से प्रथम अक्षि ऐसे नामशब्द का निर्वचन यास्क ने दिया है। तथा पाणिनि ने प्रत्ययांश के रूप में अवस्थित वन्तः ऐसा जो अंश है उसकी व्युत्पत्ति करके दिखाई । तद्यथा
यास्क अक्षि शब्द के दो निर्वचन निम्नोक्त शब्दों में दे रहे है :
१. अक्षि चष्टे । २. अनक्तेः इति आग्रायणः । तस्माद् एते व्यक्ततरे इव भवतः इति ह विज्ञायते ॥ (निरुक्तम् - १ - ९ ) अर्थात् यास्क के मत से अक्षि शब्द दो धातुओं से निष्पन्न हुआ है । १. चक्ष् धातु से, (जिसका अर्थ 'दिखाना' होता है), तथा २. अञ्जु धातु से, (जिसका अर्थ 'दिखाना' होता है ) || मतलब की हमारी आँखे १. देखने की तथा २. दिखाने की क्रिया करती है - अत: चक्ष् या अ धातु से यह अक्षि शब्द का . अवतार हुआ है - ऐसा हम निश्चित रूप से कह सकते है । परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि यास्क ने एक नामवाचक शब्द के रूप में केवल अक्षि शब्द पर ही ध्यान केन्द्रित करके उसका निर्वचन देने का (ही) कार्य किया है। वे वन्तः जैसे प्रत्ययांश के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहते है |
वसन्तकुमार म. भट्ट
पाणिनि ने ऋग्वेद के इसी शब्द को लेकर, उसका प्रत्ययांश कैसे व्युत्पन्न होता है इसकी और ही ध्यान आकृष्ट किया है । पाणिनि की दृष्टि में अक्षि शब्द एक अव्युत्पन्न प्रातिपदिक है । ( क्योंकि 436 अशेर्नित् । 3-156 - इस उणादिसूत्र से अक्षि शब्द की सिद्धि होती 1) पाणिनि के लिये यह नाम की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? यह चर्चा का विषय नहीं है ।
अक्षण्वन्तः शब्द की सिद्धि कैसे की जाय
यह बताने के लिये, पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में एक सूत्र लिखा है :- अनो नुट् । (पा. सू. 8-2-16 ) इस सूत्र के द्वारा नुट् आगम का विधान किया गया है । काशिकावृत्ति में इस सूत्र का अर्थ बताया है कि छन्दसि इति वर्तते । अनन्तादुत्तरस्य मतोर्नुडागमो भवति छन्दसि विषये ।' अर्थात् छन्द (= वेद) के विषय में, अन्नन्त (= अन् अन्तवाले शब्द) के पीछे आये हुए मतुप् प्रत्यय को नुट् आगम होता है । इस सूत्र का विनियोग करके जिस तरह से पाणिनिय व्याकरणशास्त्र में ऋग्वेद क अक्षण्वन्तः शब्द की रूपसिद्धि की जाती है उसका अभ्यास करना आवश्यक है :
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SAMBODHI
२. अक्षि + वतुप् । ३. अक्षि + अनङ् + वत् । ४. अक्ष अन् + वत् ।
१. अक्षि + मतुप् । यहाँ तदस्यास्तीति मतुप् । से मतुप् प्रत्यय का विधान, अब, छन्दसीरः (8-2-15) से म काम को व कार होता है । यहाँ, छन्दस्यपि दृश्यते ( 7-1-76) से अनङ् आदेश,
५. अक्षन् + वत् ।
६.
अब, नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य । ( 8-2-7 ) से न् कार का लोप, अक्ष0 + वत् । - अब, भूतपूर्वगति का आश्रयण करते हुए, पूर्वोक्त सूत्र (अनो नुट् ) से अक्ष(न्) शब्द क उत्तर में आये हुए मतुप् ( वतुप्) प्रत्यय को नुट् आगम किया जाता है ।
- वत् से पूर्व में नुट् (= न्) आगम लगाया जाता है ।
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अक्ष + नुट् वत् ।
अक्ष + न् वत् । -
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अब, अट्कुप्वाङ् नुम्व्यवायेऽपि । से न् को ण् त्व विधि की जायेगी । जिससे अक्षण्वत् शब्द तैयार हो जायेगा ||