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________________ Vol. XXXIII, 2010 पास्क एवम् पाणिनि - काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल 111 की (प्रयोगार्ह पद की) सिद्धि, सम्पन्न होती है। उदाहरण के रूप में – (कोई क्रिया के उपलक्ष्य में ) १. कुठार + साधकतम पदार्थ (रूपी विवक्षितत अर्थ) होता है, २. कुठार + करण-कारक संज्ञा (साधकतमं करणम् । सूत्र से संज्ञा-विधान) ३. कठार + टा - भ्याम - भिस (ततीया विभक्ति के प्रत्ययों की उत्पत्ति) ४. कुठार + टा (एकत्व की विवक्षा में टा की पसंदगी की जाती है) ५. कुठार + इन (अदन्त प्रकृति होने के कारण टा के स्थान में इन का आदेश किया जाता है।) ६. कुठारेन । (अ + इ ये दो वर्ण संहितावस्था में पास पास आने से वर्णसन्धि होती है । ), तत: - ७. कुठारेण ॥ (यहाँ प्रकृतिस्थ रेफ से परे आये न वर्ण का ण वर्ण में परिवर्तन हो जाता है।) कुठारेण (प्रहरति) ॥ पाणिनि इस तरह वक्ता के विवक्षित अर्थ को व्यक्त करने के लिये, वाक्य रूप पूरी इकाई की ही निष्पति (साधनिका) प्रस्तुत करते है । और वाक्यान्तर्गत सुबन्त एवं तिङन्त पदों की (युगपत्) निष्पति करने के लिये, प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करने की पूरी प्रक्रिया दिखाते है । इस को देख कर, लगता है कि यहाँ प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन से शब्द उत्पन्न होते है । विशिष्टा उत्पत्तिरिति व्युत्पत्तिः ॥ ___ पाणिनि ने व्युत्पत्ति अर्थात् शब्दों की विशेष उत्पत्ति जो दिखाई है, उसका वैशिष्ट्य यदि नामशः बताना हो तो यहाँ कहना होगा कि - १. पाणिनि ने विवक्षित अर्थ को अपनी प्रक्रिया में आरम्भ-बिन्दु पर (in-put के रूप में) रखा है और तत्पश्चात् उसका प्रकृति एवं प्रत्यय में परिवर्तन करके, ध्वनिशास्त्र से सम्मत आवश्यक परिवर्तन के साथ (out-put के रूप में) प्रयोगार्ह रूपसिद्धि तथा अन्ततो गत्वा वाक्यसिद्धि प्रदर्शित की है। तथा २. नामपदों की एवं क्रियापदों की रूपसिद्धि करने के लिये पाणिनि ने पहेले तो सुप् एवं तिङ् जैसे सर्वसाधारण (21 तथा 18) प्रत्ययों की शृङ्खला प्रस्तुत की है, और उसके बाद स्थान्यादेशभाव की प्रयुक्ति से, एक ही प्रत्यय अर्थात् एक ही रूपघटक में से विविध प्रकार के असंख्य रूपों का निर्माण करके दिखाया है । ४. यास्क एवं पाणिनि की कार्यसीमाओं का एक निदर्श एक उदाहरण के माध्यम से यास्क एवं पाणिनि की कार्यसीमाओं का रेखाङ्कन करना उचित रहेगा : अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः । (ऋग्वेदः 10-71-7) । अक्षण ऽवन्तः । कर्ण वन्तः । सखायः । मनः 5 जवेष । असमाः । बभवः । यहाँ पर अक्षण्वन्तः - ऐसा जो शब्द है उसके पदपाठ में स्पष्ट रूप से दो अंश पृथक् तया दिखाये जाते है । यथा - । अक्षण ऽ वन्तः । भाग्यवशात् हमारे दोनों आचार्यों ने इसी एक शब्द पर अपनी दृष्टि से निर्वचन और व्युत्पत्ति प्रदर्शित की है।
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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