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वसन्तकुमार म. भट्ट ।
SAMBODHI
लिये कुल मिला के पाँच निर्वचन प्रस्तुत किये गये है :१. सम् + उद् + द्रव् – इस में से (पृथिवी लोक में) पानी द्रवित होता है ।
___(अर्थात् समुद्र शब्द अन्तरिक्ष का वाचक है)। २. सम् + अभि + द्रव् – पानी (निम्नगामी होने के कारण) इसकी और जाता है ।
(अर्थात् यहाँ समुद्र शब्द पार्थिव सागर का वाचक बनेगा) • ३. सम् + मुद् – (बहुत पानी होने के कारण) उसमें जलचर आनन्द करते है ।
४. सम् + उद(क) - जिसमें अच्छी तरह से पानी इकट्ठा होता है ।
५. सम् + उन्द् – जो (किनारे पर खडे आदमी को) भीगो देता है । वह समुद्र है । इसमें सम् उपसर्गपूर्वक द्रव्, मुद्, या उन्द् धातु-वाच्य क्रियाओं के (चरितार्थ होने के कारण अपार एवं अगाध जल से भरे सागर को समुद्र कहा गया है। अर्थात् तत् तत् क्रियाओं को करने के कारण समुद्र समुद्र कहा जाता है ।
यहाँ पर, जो निर्वचन दिये गये है वे पार्थिव समुद्र तथा अन्तरिक्ष - ऐसे दोनों सुप्रसिद्ध अर्थों को प्रमाणिक करने के लिये पर्याप्त है। क्योंकि उपर्युक्त निर्वचनों में १. जो धातु दिखाये गये है, उस धातु-वाच्य क्रिया को समुद्र चरितार्थ करता है, तथा २. तत् तत् धातुओं की वर्णध्वनियाँ भी समुद्र शब्द में गुम्फित भी है।
इस चर्चा का तात्पर्यार्थ यह होता है कि - यास्क ने निर्वचन देने के निमित्त से शब्दार्थ-सम्बन्ध की ही विचारणा की है । एक और, निघण्टु में आया हुआ (या वेद में प्रयुक्त) समुद्र जैसा कोई शब्द है, और दूसरी और इस शब्द के प्रचलित अर्थ है । इन दोनों का सम्बन्ध उपरि-निर्दिष्ट क्रिया-वाचक धातुओं के साथ रहा है। पूर्वोक्त निर्वचनों में जिन धातुओं का प्रदर्शन किया गया है, वे सब ऐसे है कि इन धातुओं के द्वारा वाच्य जो जो क्रियायें है वे समुद्र (नामक पदार्थ) चरितार्थ करता है । तथा इन धातुओं के अन्दर जो जो वर्णध्वनियाँ गुम्फित है, वह समुद्र शब्द में भी विद्यमान (श्रूयमाण) है । अत: यह कहना ही होगा कि - यास्क निर्वचनों के द्वारा "शब्दार्थ-सम्बन्ध धातुमूलक है" ऐसा सिद्ध करते है और शब्दों के प्रचलित अर्थ यदि धातुमूलक है तो वह प्रामाणिक भी है ऐसा मानना ही होगा । यही तो था कौत्स को देने योग्य प्रत्युत्तर, और यही तो थी यास्क की निरुक्त लिखने की इतिकर्तव्यता ॥
अब, (ख) लौकिक एवं वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति प्रस्तुत करने के लिये पाणिनि की जो सोपानबद्ध प्रक्रिया है उसका निरूपण करना होगा :
___ पाणिनि ने पृथक्करणात्मक व्याकरण न लिख कर, प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करके शब्दनिष्पादनात्मक व्याकरण लिखा है। जिसमें, आरम्भ में वक्ता के विवक्षितार्थों की वाचक प्रकृति एवं प्रत्यय स्थापित किये जाते है । उसके बाद, स्थान्यादेश-भाव की प्रयुक्ति से प्रकृति एवं प्रत्ययांश में आवश्यक परिवर्तन करने के आदेश दिये जाते है और तत्पश्चात् प्रकृति के अन्तिम वर्ण तथा प्रत्यय के आदि वर्ण पास पास में (संहिता-स्थिति में) आ जाने के कारण सन्धि-कार्य होते है। जिसके फल स्वरूप इष्ट रूप