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________________ Vol. XXXIII, 2010 यास्क एवम् पाणिनि - काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल 109 का होना मान्य रखा है, परन्तु उनकी चर्चा का केन्द्रभूत स्थान तो है 'नाम' प्रकार के शब्दों । शाकटायन नामक वैयाकरण को अपना गुरु मानते हुए यास्क ने कहा है कि - भाषा में प्रयुक्त होनेवाले सभी नाम आख्यातज होते है । अर्थात् यास्क सभी नामों को यौगिक (व्युत्पन्न) मानते है । दूसरे शब्दों में कहे तो- सभी नाम क्रियावाचक धातु से ही निष्पन्न हुये है। परन्तु इस विषय में पाणिनि की मान्यता कुछ अलग है । पाणिनि गार्ग्य नामक नैरुक्त को अपना गुरु मानते हुए, कहेते है कि भाषा में प्रयुक्त होनेवाले सभी नाम व्युत्पन्न नहीं है । पाणिनि स्पष्टतया ऐसा मानते है कि भाषा में बहुशः नाम यौगिक हो सकते है, किन्तु सभी नामों को यौगिक (व्युत्पन्न) बताना साहसमात्र है। भाषा में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के स्वरूप को लेकर यह जो मूलभूत अवधारणा में ही भेद है - उसी में दोनों आचार्यों के कार्यों का भी भेद अन्तर्निहित है। निरुक्त के प्रथमाध्याय में दुर्गाचार्य ने कहा है कि - शब्द तीन प्रकार के होते है :- १. अतिपरोक्षवृत्तिवाले, २. परोक्षवृत्तिवाले तथा ३. प्रत्यक्षवृत्तिवाले । यास्क ने निघण्टु में संगृहीत (अतिपरोक्षवृत्तिवाले) शब्दों का जब निर्वचन दिया है तब उन्हों ने पहेले अतिपरोक्षवृत्तिवाले शब्द को परोक्षवृत्ति में परिवर्तित किया है, और बाद में उसे प्रत्यक्षवृत्ति में ढाल कर, उस शब्द(नाम) में अन्तर्निहित धातु का प्रदर्शन किया है । शब्द के द्वारा जो अर्थ उद्घाटित होता है, वह भी प्रामाणिक माना जायेगा की जब उस अर्थ को धातुसाधित बताया जाय। इसी लिये प्रत्येक नामों में अन्तर्निहित धातु दिखाना आवश्यक है। उदाहरण के रूप में – निघण्टवः। यह अतिपरोक्षवृत्तिवाला शब्द है, उसको निगन्तवः । जैसे परोक्षवृत्तिवाले शब्द में परिवर्तित किया गया है और अन्त में निगमयितारः । जैसे प्रत्यक्षवृत्तिवाले शब्द-स्वरूप में ढाल कर, उसे नि उपसर्गपूर्वक गम् धातु से निकला हुआ शब्द कहा गया है । अब उसका जो अर्थ है (अर्थ का निगमन करानेवाले शब्द को 'निघण्टु' कहते है - वह) प्रमाण-पुरस्सर का ही है ऐसा सिद्ध होता है। ____ यास्क ने शाकटायन का अनुसरण करते हुए सभी नामों को यौगिक (व्युत्पन्न) माने हैं । परन्तु पाणिनि ने उससे विपरित. भाषा में प्रयक्त होनेवाले प्रत्येक नामशब्द को व्यत्पन्न नहीं माना है। भाषा में बहुशः नाम यौगिक है ऐसा दिखाई दे रहा है, परन्तु ऐसे भी शब्द काफी है कि जिसकी रचना कैसे हुई होगी यह कहना अतिकठिन भी है। अतः पाणिनि ने व्युत्पत्ति की दृष्टि से जो दुर्बोध या अबोध शब्द देखे है (जिसको दुर्गाचार्य ने परोक्षवृत्तिवाले या अतिपरोक्षवृत्तिवाले शब्द कहे है) उसके लिए निपातन तथा पृषोदरादि-गण की व्यवस्था की है, या उणादि-प्रत्ययों की और अङ्गुलिनिर्देश कर दिया है । पाणिनि ऐसे शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं देते है । अतः हम कहे सकते है कि वाक्यान्तर्गत चार प्रकार के शब्दों में से यदि त्रिविध नामों में से, यास्क का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से अतिपरोक्षवृत्तिवाले नाम ही है, तो तीन प्राकर के नामों में से पाणिनि का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से प्रत्यक्षवृत्तिवाले नाम ही है ॥ ___अब दोनों आचार्यों की कार्यपद्धति को समझने के लिए निर्वचन एवं व्युत्पति का स्वरूप देखना होगा । (क) यास्क ने निघण्टु में आये हुये समुद्र शब्द का निर्वचन इस प्रकार दिया है :समुद्रः कस्माद् । समुद् द्रवन्ति अस्माद् आप: । सम् अभि द्रवन्ति एनम् (प्रति) आपः । संमोदन्ते अस्मिन् भूतानि । समुदको भवति । समुनत्ति इति वा । (निरुक्तम् २-१०) यहाँ पर एक समुद्र शब्द के
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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