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________________ 108 वसन्तकुमार म. भट्ट SAMBODHI निर्वचन करना चाहिये । इस चर्चा का निष्कर्ष यही निकलता है कि – निघण्टु में शब्दसंग्रह के साथ साथ जो अर्थ-निर्देश किया गया है एवं यास्क भी "ब्राह्मण-ग्रन्थों में ऐसा अर्थ प्रचलित है" ऐसा जब कहते है तब, निरुक्त में अज्ञातार्थक वैदिक शब्दों का अर्थ ढूँढने के लिये निर्वचन दिये है - ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है ॥ अब, निघण्टु के शब्दों पर व्याख्या करते समय यास्क का प्रयास किस दिशा का है, या किस लक्ष्य को ले कर यास्क चलते है - यह सूक्ष्मेक्षिकया पुनर्विचारणीय है । इस विषय पर दुबारा सोचने से मालुम होता है कि यास्क दो लक्ष्य को लेकर चल रहे है :- (१) निर्वचनों के द्वारा शब्दार्थसम्बन्ध की गवेषणा करना, (और उसके आधार पर वैदिक शब्दों के प्रचलित अर्थों को प्रामाणिकता प्रदान करना) तथा (२) दैवत-काण्ड के शब्दों की व्याख्या करते हुए वैदिक-देवता शास्त्र (Theology) को प्रस्तुत करना ॥ महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी की जो रचना की है, उसमें लोक की एवं वेद की संस्कृत भाषा का (व्युत्पत्तिदर्शक) व्याकरण प्रस्तुत करने का लक्ष्य रखा है । और पाणिनि ने जे व्याकरण लिखा है वह एक शब्दनिष्पादक तन्त्र (word-producing machine) के रूप में लिखा है । अर्थात् अष्टाध्यायी में - व्याक्रियन्ते पृथक्क्रियन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् – ऐसे व्युत्पत्तिजन्य अर्थवाले (पथक्करणात्मक) व्याकरण की प्रस्तति नहीं है । यहा तो प्रकति + प्रत्यय का संयोजन करके, आवश्यक ध्वनि-परिवर्तन के बाद लोक में और वेद में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों की निष्पादना (व्युत्पत्ति) प्रदर्शित की गई है। यहाँ "शब्द" शब्द से पाणिनि को "वाक्य" ऐसा अर्थ अभिमत है - यह बात भूलना नहीं है। कहने का तात्पर्य यही है कि पाणिनि का व्याकरण-तन्त्र वाक्य-निष्पत्ति के लक्ष्य को लेकर प्रवृत्त हुआ है ॥ पाणिनि से पहेले वेदों का पदपाठ एवं कतिपय प्रातिशाख्य ग्रन्थ लिखे गये थे । अतः पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भाषाचिन्तन का माहोल देखा जाय तो वर्णशिक्षा, पदच्छेद, सन्धिविचार, और उदात्तादि स्वर विषयक चर्चायें ही प्रवर्तमान थी । इस से सारांश यही निकलता है कि – पाणिनि के पूर्वकाल में, व्याकरणविद्या भाषा के वर्णध्वनियाँ तक ही प्राय: सीमित थी । किन्तु पाणिनि भाषा की जो बृहत्तम इकाई के रूप में वाक्य होता है, उसकी निष्पति करने के लिये व्याप्त हुए है । और वाक्यसिद्ध के साथ जूडे हुए पदरचना एवं सन्धिविचार का भी पूर्ण रूप से निरुपण करते है । तथा वे केवल लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण तक सीमित न रह कर, वैदिक संस्कृत भाषा का भी अन्वाख्यान कर रहे है ॥ ३. यास्क एवं पाणिनि का कार्य और कार्यपद्धति यास्क एवं पाणिनि के निर्वतन तथा व्युत्पत्ति का स्वरूप देखने से पहले, ये दोनों आचार्य वाग्व्यवहार में प्रचलित शब्दों के मूलभूत रूप के बारे में कौन सी अवधारणा रखते है - यह भी प्रथम ज्ञातव्य है । यास्क ने वैसे तो भाषा में चार प्रकार के शब्दों - नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात -
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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