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Vol. xxXIII, 2010
यास्क एवम् पाणिनि - काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल
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किया था । कौत्स जैसे आचार्यों ने भी परम्परागत रीति से वेदों के जो अर्थ बतलाये जाते थे उस पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था । अतः ब्राह्मण - संस्कृति के पक्षघर आचार्यों की ये इतिकर्तव्यता बन गई थी कि वेदमन्त्रों को वे सार्थक बतावें और इन अर्थों की प्रमाण-पुरस्सरता भी प्रस्थापित करें ।
दूसरी ओर पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में लौकिक एवम् वैदिक – दोनों प्रकार के शब्दों का अन्वाख्यान किया है। यद्यपि पाणिनि भगवान् बुद्ध के प्रायः समकालिक है । तथापि पाणिनि ने मन्त्रार्थ के सन्दर्भ में कोई विवाद का नामशः निर्देश नहीं किया है । परन्तु वेदमन्त्र सार्थक है ऐसी आस्तिक परम्परा का अनुसरण करते हुए, पाणिनि ने लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण के साथ साथ ही वैदिक भाषा के रूपवैविध्य का वर्णन किया है। पाणिनि के पर्वकाल में जो वेद-विषयक साहित्य लिखा गया था उनमें शाकल्य का पदपाठ एवं कतिपय प्रतिशाख्य ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। इस में जो वेद भाषा-सम्बन्धी चिन्तन आकारित हुआ दिखाई दे रहा है वह वर्णसन्धि, पदच्छेद, वर्णोच्चारम-शिक्षा, उदात्तादि स्वर विषयक चर्चा तक सीमित है। अतः पाणिनि के लिये जो (पदपाठ एवं प्रातिशाख्यादि की) परम्परागत सामग्री उपलब्ध थी उसके सन्दर्भ में ही पाणिनि का मूल्याकनं करना चाहिये । क्योंकि यह भी सुविदित है कि पाणिनि का पुरोगामी हो ऐसा लौकिक संस्कृत भाषा का व्याकरण प्रस्तुत करनेवाला एक भी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं होता है । तो - पाणिनि की अष्टाध्यायी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इस तरह की थी ॥ २. यास्क एवं पाणिनि का लक्ष्य
यास्क ने जो निरुक्त ग्रन्थ की रचना की है, उसमें प्राधान्येन (अज्ञातकर्तृक) निघण्टु नामक वैदिक शब्दकोश में संगृहीत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने का ही लक्ष्य रखा है। निरुक्त के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि - समाम्नायः समाम्नातः । स व्याख्यातव्यः ॥ अर्थात् यास्क का निरुक्त एक व्याख्या ग्रन्थ है, दूसरे शब्दो में कहे तो निघण्टु पर लिखा गया एक भाष्य-ग्रन्थ है । लेकिन बिना विलम्ब किये यह कहना होगा कि निघण्टु में संगृहीत किये गये शब्दों के (अज्ञात) अर्थ ढूँढने के लिये यह व्याख्या ग्रन्थ नहीं लिखा गया है । यद्यपि प्रायः ऐसा माना जाता है कि "वेदमन्त्रों में प्रयुक्त जो जो शब्द दुर्बोध थे, या अज्ञातार्थक थे उसका संग्रह निघण्टु में किया गता है। अत: ऐसे अज्ञातार्थक शब्दों के अर्थ दिखाने के लिये यास्क ने निरुक्त लिखा है ।" तो यह कथन समुचित नहीं है । क्योंकि निघण्टु के अन्दर, जो विभिन्न प्रकार के शब्दसंग्रहों रखे गये है उसमें सर्वत्र अर्थ-प्रदर्शन तो किया ही गया है। जैसे कि - इति एकविंशति पृथिवी नामधेयानि । इति षोडश हिरण्यनामानि । तथा, यास्क ने जहाँ, जो शब्द का निर्वचन दिया है वहाँ प्रायः "इस शब्द का यह अर्थ है - ऐसा ब्राह्मणग्रन्थ से जाना जाता है ।" (इति ह विज्ञायते । .....इति च ब्राह्मणम्...इत्यपि निगमो भवति) ऐसा कहा है । अपि च, निर्वचन के सिद्धान्तों का विवरण देते समय यास्क ने जो कहा है कि - अर्थनित्यः परीक्षेत । ...नैकपदानि निर्ब्रयात् । ....यथार्थं निर्वक्तव्यानि । इसका मतलब यह है कि यास्क ने संसार के किसी भी नैरुक्त (निर्वचन-कर्ता) के पास ऐसी अपेक्षा रखी ही है कि किसी भी शब्द का निर्वचन करने से पहले उस शब्द का अर्थ जानना अनिवार्य है । अर्थात् अर्थज्ञानपूर्वक ही