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________________ 106 वसन्तकुमार म. भट्ट SAMBODHI का पूरा परिचय है । यास्क जब दण्डयः, राजा, सन्ति - जैसे शब्दों का पृथक्करण देते हैं तब दण्डम् अर्हति इति दण्ड्यः । में तदर्हति । पा.सू. 5-1-63 एवं दण्डादिभ्यः। पा.सू. 5-2-66 सूत्रों की उनको जानकारी है ऐसा दिखाई देता है। इसी तरह से सन्ति में आदि-स्वर का लोप होता है, तथा राजा शब्द में उपधा-विकार होता हैं – इन सब की यास्क को जो जानकारी है वह पाणिनि के सूत्रों पर आधारित है ऐसा दिखाई देता है। इस तरह से, जब दोनों पक्षों के तर्क हमारे सामने रखे जाते है तब पाणिनि तथा यास्क का पौर्वापर्य निर्धारित करना मुश्किल लगता है। इस लिए प्रोफे. ज्योर्ज कार्दोनाजी कहते है किपाणिनि एवं यास्क का काल-निर्धारण करने का कार्य अभी भी अवशिष्ट है । यद्यपि इस सन्दर्भ में पाणिनि के कतिपय तद्धित एवं कृदन्त सूत्रों का सांस्कृतिक दृष्टि से अभ्यास किया जाय तो यास्क की अपेक्षा से पाणिनि का उत्तरवर्तित्व निश्चित रूप से सिद्ध हो सकता है:-उदाहरण रूप में १. इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् इन्द्रदृष्टम् इन्द्रसृष्टम् इन्द्रजुष्टम् इन्द्रदत्तमिति वा (5-293), तथा २. ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् ( 3-2-87) - यहाँ प्रथम सूत्र में इन्द्रशब्द का 'आत्मा' अर्थ में प्रयोग किया गया है, जो एक दार्शनिक अर्थ है। दूसरे सूत्र मे ब्रह्महा - भ्रूणहा - वृत्रहा जैसे शब्दों की रूपसिद्धि कही है । यहा दिति के गर्भस्थित पुत्रों (मरुद्-गण) की इन्द्र द्वारा की गई हत्या का निर्देश है - जिसमें हम एक पौराणिक कथा का सन्दर्भ देख सकते है । ये दोनों सन्दर्भ ऐसे है जो यास्क-कालिक नहीं है । यास्क तो इन्द्र का 'वृष्टि के देवता' के रूप में ही निर्वचन करते है । अतः हम कहे सकते है कि पाणिनि यास्क के उत्तरवर्ती काल में ही प्रादुर्भूत हुए होंगे ॥ (एवञ्च - ये दोनों आचार्य प्रायः निश्चित रूप से ई.पूर्व ७००-४०० के बीच में हुये होंगे) ॥ परन्तु दोनों आचार्यों के ग्रन्थों का तुलनात्मक अभ्यास करने में काल-सीमा का कोई सीधा उपयोग नहीं है। क्योंकि दोनों आचार्यों के ग्रन्थों में यदि प्रतिपाद्य विषयवस्तु का सर्वथा साम्य होता तभी कौन पुरोगामी है और कौन अनुगामी है यह प्रश्न महत्त्व का बनता है। अतः प्रस्तुत आलेख में, यास्क एवं पाणिनि की स्वतन्त्र रूप से अपनी जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है उसको ध्यान में लेते हुए ही इन दोनों के ग्रन्थों में जो भेद है - उसका अभ्यास रखा गया है । १. यास्क एवं पाणिनि की. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यास्क निरुक्ताध्ययन के प्रयोजनों की चर्चा करते हुए कहते है कि वेदमन्त्रों का अर्थ जानने के लिए पढना चाहिये । लेकिन इसी क्षण पर पूर्वपक्षी के रूप में कौत्स नाम के आचार्य का मत उद्धृत करते हुए कहा गया है कि - यदि मन्त्रार्थ-प्रत्ययाय अनर्थकं भवतीति कौत्सः । अनर्थकाः हि मन्त्राः । (निरुक्तम् - अ. 1/5) अर्थात् यास्क के पूर्वकाल में यह मत प्रचलित हो गया था कि वेदमन्त्रों में से कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता है । वैदिक मन्त्रों के जो अर्थ बताये जाते है वे भी वैदिक क्रियाकाण्ड के साथ सुसंगच नहीं है । वेदमन्त्रों में ऐसे अनेक वाक्य है कि जिसमें परस्पर विरुद्धार्थ का ही कथन हो । सारांश यही निकलता है कि वेदमन्त्रों के जो तथाकथित अर्थ बतलाये जाते है वह तर्कशुद्ध बुद्धि में बैठते नहीं है । तो - यह थी यास्क के निरुक्त की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ॥ ब्राह्मण-संस्कृति के यज्ञयाग़दि में पशुहिंसा होती थी, इस लिए भगवान् बुद्ध ने वेदों का विरोध
SR No.520783
Book TitleSambodhi 2010 Vol 33
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size21 MB
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