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रमानाथ पाण्डेय
SAMBODHI
कर्म तथा संकल्प या इच्छा स्वातन्त्र्य - कर्म तथा संकल्प स्वातन्त्र्य से तात्पर्य है कर्म करने की व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्रता अर्थात् वह स्वतः कर्म करने में स्वच्छन्द है या परतन्त्र । भारतीय दर्शनों में इस सम्बन्ध में भिन्न भिन्न विचार प्राप्त होते हैं । कर्मसिद्धान्त के सामान्य नियम के अनुसार कर्मफल नियत हैं क्योंकि वह हमारे कर्म करने को हमारे इच्छा स्वातन्त्र्य को नियन्त्रित नहीं मानता है। जो कर्म सम्पन्न हो चुके हैं उनका फल तो व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है । इस प्रकार कर्मफल व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं, अपितु उसके कर्म पर निर्भर करता है । तथापि हम अपने वर्तमान एवं भावी जीवन को स्वेच्छानुसार शुभ या अशुभ कर्मों के द्वारा सुखी या दुःखी बनाने में स्वतन्त्र हैं । संचित तथा प्रारब्ध कर्मों के फलभोग के लिये व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं है किन्तु क्रियमाण कर्मों के विषय में वह पूर्णतया स्वतन्त्र है । हमारा वर्तमान सुख एवं दुःख जिस प्रकार पूर्व के कृत कर्मों के परिणाम हैं उसी प्रकार भावी सुख एवं दुःख वर्तमान कर्मों पर निर्भर होगा, इस तथ्य को समझकर हम अपने भावी उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं । इस प्रकार कर्मवाद के अनुसार हम अपने भाग्य का निर्माण स्वयं कर सकते हैं। हमारे कर्मों के अलावा 'नियति' नाम की कोई अन्य सत्ता नहीं है जो हमारे सुख या दुःख का कारण बन सके।
इस सम्बन्ध में द्वैताद्वैत का विचार है कि शास्त्रों में भुक्ति तथा मुक्ति दोनों ही प्रकारों के उपायों की चर्चा प्राप्त होती है - 'स्वर्ग की कामना से यज्ञ करना चाहिये', तथा 'मोक्ष की कामना से ब्रह्म की उपासना करनी चाहिये' जिनका अभिप्राय यही है कि जीवात्मा ही कर्ता है। अतः उसे तो मात्र वैसे ही कर्म करने चाहिये जो केवल शुभ हों और मात्र आनन्ददायक हों, तथापि वह वैसे पापकर्म क्यों करता है जो दुःख व क्लेश प्रदान करते हैं ? प्रारब्ध कर्म के फल की जब उपस्थिति होती है तब उसके वशीभूत होकर ही जीवात्मा कर्म करता है । उसको उस समय शुभ या अशुभ किसी प्रकार के भी नियम का विवेक नहीं रहता है । जीवात्मा यद्यपि स्वयं कर्ता होता है तथापि वह कर्मवश हो जाता है । व्यवहार में भी यह देखा जाता है कि साधु आचरण करने वाले भी कभी कभी अकस्मात् प्राक्तन संस्कारों के वशीभूत हो अशुभ कर्म कर बैठते हैं । जीव द्रष्टा, भोक्ता, कर्ता एवं श्रोता भी है, तथापि वह कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि अपने ज्ञान, कर्म, मोक्ष तथा बन्धन सभी के लिये ईश्वर पर निर्भर है । श्रुति में कहा गया है कि 'परमात्मा जीवों के अन्तःकरण में स्थित होकर ही शासन करता है' जिससे यही सिद्ध होता है कि जीवात्मा, परमात्मा के वश में होकर ही कर्म करता है । वही परमात्मा जिस व्यक्ति को ऊपर के लोकों में ले जाना चाहता है, उससे पुण्य कर्म करवाता है (कौषतीकि ३.८) । परमात्मा जीवों के अन्तःकरण में स्थित होकर ही शासन करता है' । इस प्रकार इन श्रुति वाक्यों से स्पष्ट है कि जीवात्मा स्वतन्त्रतापूर्वक कोई भी कर्म करने में स्वयं समर्थ नहीं है, वह जो भी कर्म करता है, वह परमात्मा की प्रेरणा से उसकी दी हुयी शक्ति से ही करता है । इसी भाव को गीता में भी व्यक्त किया गया है-हे ! अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता है। वही सभी प्राणियों को यन्त्र पर आरूढ़ हुयी के समान सबको माया से भ्रमाता है । परमात्मा जीवात्मा से जो भी धर्म या अधर्म रूपी कर्म करवाता है उसीके परिणामस्वरूप वह जीवात्मा से अन्य जन्म में भी शुभ या अशुभ कर्म करवाता है। ये शुभाशुभ कर्म पूर्व जन्म के किये हुये कर्मों के परिणामस्वरूप ही संचालित होते हैं । यही कारण है कि शास्त्रों