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________________ 86 विजयपाल शास्त्री SAMBODHI इस सरस्वती-वन्दन के उपरान्त सङ्केतकार लिखते हैं कि सरस्वती सभी की आराध्या है, परस्पर विरोध होने के उपरान्त भी सभी वादी इसकी स्तुति में एकमत हैं । यहाँ सङ्केतकार का भाव यह हैं कि सरस्वती एक सम्प्रदायनिरपेक्ष विश्ववन्द्या देवी है । इसके उपरान्त सङ्केतकार अपने को पूर्व ग्रन्थकारों का ऋणी मानते हुए अपनी विनयशीलता इस . प्रकार प्रकट करते हैं - नानाग्रन्थ-चतुष्पथेषु निभृतीभूयोच्चयं कुर्वता प्राप्तैरर्थकणैः कियद्भिरभितः प्रज्ञधिशून्यात्मना । सर्वालङ्कृतिभालभूषणमणौ काव्यप्रकाशे मया वैधेयेन विधीयते कथमहो सङ्केतकृत्साहसम् ॥२॥ (पृ० १) बुद्धि-समृद्धि से शून्य मुझ वैधेय-जडमति (माणिक्यचन्द्र) द्वारा नाना ग्रन्थरूपी चौराहों से चुपके से चुनकर प्राप्त किए कुछ अर्थकणों की सहायता से सर्व-अलङ्कार-ग्रन्थों में शिरोमणिभूत काव्यप्रकाश पर देखो कैसे 'सङ्केत' टीका की रचना का साहस किया जा रहा है । इस पद्य में ग्रन्थकार की निरभिमानिता व नम्रता विशेष रूप से प्रतीत हो रही है। न प्राग्ग्रन्थकृतां यशोऽधिगतये नापि ज्ञताख्यातये स्फूर्जबुद्धिजुषां न चापि विदुषां सत्प्रीतिविस्फीतये । प्रक्रान्तोऽयमुपक्रमः खलु मया किं तहगर्यक्रम स्वस्यानुस्मृतये जडोपकृतये चेतोविनोदाय च ॥३॥ (पृ० १) __ न तो प्राचीन ग्रन्थकारों का यश पाने के लिए और न ही विद्वत्ता दिखाने के लिए तथा न ही प्रतिभाशाली लोगों को (चमत्कृत कर) प्रसन्न करने के लिए यह (सङ्केतरचना-रूप) उपक्रम प्रारम्भ किया है, किन्तु अपनी अनुस्मृति व मन्दजनों की उपकृति करने के लिए ही यह उपक्रम किया है । इस पद्य में विनम्रता व निरभिमानिता के साथ व्याख्या-रचना का प्रयोजन भी बताया है । (प्रथमोल्लासान्ते) सच्छब्दार्थशरीरस्य काऽलङ्कारव्यवस्थितिः । यावत्कल्याणमाणिक्य-प्रबन्धो न निरीक्ष्यते ॥ (पृ० ११) उत्तम शब्द व अर्थ रूप शरीरवाले (काव्य) की अलङ्कार-स्थिति तब तक कैसे हो सकती है जब तक 'कल्याणमाणिक्यप्रबन्ध' नहीं देखा जाता । अर्थात् मेरी इस रचना से व्याख्यात व व्यवस्थित अलङ्कारशास्त्र विशेष रूप से शोभित हो रहा है। ___ इस प्रकार के श्लोक प्रत्येक उल्लास के आदि या अन्त में हैं। ये श्लोक एक प्रकार की प्ररोचनात्मक या प्रशंसात्मक उक्तियाँ हैं, जिनमें उल्लासगत विषय के व्याख्यान में सङ्केत की उत्कृष्टता प्रतिपादित की है । सङ्केत की गुणवत्ता व रचनासौष्ठव को देखते हुए ये उक्तियाँ यथार्थ ही प्रतीत होती हैं।
SR No.520782
Book TitleSambodhi 2009 Vol 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages190
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size19 MB
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