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विजयपाल शास्त्री
SAMBODHI
ऐसे स्थलों पर मूलपाठ के समीक्षात्मक संस्करण के आधार पर ग्राह्य पाठ पादटिप्पणी में या ऊपर कोष्ठक में दिखाया है । इस प्रकार के लुप्त व खण्डित स्थलों के कारण सटीक संस्करण की श्लोकसंख्या समीक्षात्मक संस्करण की श्लोकसंख्या से कुछ न्यून रह गई है।
जैसा कि बताया जा चुका है-टीकाकार को उपलब्ध हुआ मूलपाठ का हस्तलेख अनेक स्थलों पर खण्डित, विपर्यस्त व भ्रष्ट पाठ वाला था । उसके आधार पर की गई टीका में भी उन स्थलों में दोष रहना स्वाभाविक था । अतः टीकायुक्त संस्करण को मूलपाठ के समीक्षात्मक संस्करण से पृथक् प्रकाशित करना उचित समझा, जिससे इसका स्वतन्त्र स्वरूप अलग रहे । टीका-निर्दिष्ट पाठान्तर
व्याख्या में तीन स्थलों को छोड़कर कहीं भी टीकाकार ने पाठान्तर नहीं दिखाए१६ । ये पाठान्तर भी सम्भावना के आधार पर दिखाए प्रतीत होते हैं । इससे यह भी विदित होता है कि टीकाकार को अर्जुनरावणीय के टीकोपजीव्य हस्तलेख के अतिरिक्त अन्य हस्तलेख उपलब्ध नहीं थे ।
टीकाकार ने स्पष्टतः विपर्यस्त प्रतीत होने वाले पाठ में भी शोधन के लिए हस्तक्षेप नहीं किया और बड़ी निष्ठा (ईमानदारी) से 'स्थितस्य गतिः समर्थनीया' का अनुसरण करते हुए उपलब्ध पाठ को ही व्याख्यात करने का प्रयास किया है। भले ही इसके लिए उन्हें क्लिष्ट कल्पनाएं करनी पड़ी हों । उदाहरण के लिए १३वें सर्ग के २९वें श्लोक की व्याख्या (कैरलीटीकोपेत-संस्करणम्-पृ० २१२) तथा १६ वेंसर्ग के ततीय श्लोक की व्याख्या (प० २४८) द्रष्टव्य है, जहा पर उपलब्ध भ्रष्ट पाठ की संगति लगाने में टीकाकार बहुत आयासयुक्त दिखते हैं । हमने इस प्रकार के स्थलों पर मूलग्रन्थ के समीक्षात्मक-संस्करण का ग्राह्य पाठ पादटिप्पणियों में दिखा दिया है, जिससे प्रसङ्गगत सहज अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
भले ही टीका में उपर्युक्त कुछ न्यूनताएं हों, पर यह अर्जुनरावणीय को समझने के लिए अत्यन्त उपादेय है । इस टीका के अभाव में काव्य के बहुत से स्थलों का समझना दुष्कर था । केरलवासी विद्वानों ने इस महाकाव्य की रक्षा कर व्याख्या लिखने का जो महनीय कार्य किया, इसके लिए संस्कृत-जगत् सदैव उनका ऋणी रहेगा । अर्जुनरावणीय की रक्षा व व्याख्या का विशिष्ट अवदान कर केरलवासी पण्डितों ने विलक्षण प्रतिभा के धनी काश्मीरी महाकवि भूमभट्ट के प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि समर्पित की है और अपने को ऋषिऋण से अनृण करने का अवदात कर्त्तव्य किया है।
टीप्पण:
१. अभ्यहितं च पूर्वं निपततीति वक्तव्यम् - काशिका-२.२.३४; २. दुर्घटवृत्तिः, सम्पादक:- त. गणपतिशास्त्री, 'दुर्घटवृत्तौ स्मृता ग्रन्थकाराः' पृ० १; अनन्तशयन- ग्रन्थमाला
संस्करणम्, १९०९ ई. ३. घोष इति दुर्घटवृत्ति:- पृ० ८६ (घोषोऽश्वघोष इत्यर्थः)-भागवृत्ति-सङ्कलनम्- ५.२. ११२, पृ०-२८, पादटिप्पणी
३. ॥