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Vol. XXXII, 2009
अर्जुनरावणीय (रावणार्जुनीय) की टीका व इसके रचयिता
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श्रीनारायणमिश्र-सम्पादित भाषावृत्ति-३.२.१६२, पृ० १२०, पादटिप्पणी-३, पृ० ४०२, पृ० ४०६; (रत्ना प्रकाशन वाराणसी) . श्रीनारायणमिश्र-सम्पादित दुर्घटवृत्ति-पृ० २३४;
इत्यश्वघोषप्रयोगात्-दुर्घटवृत्तिः- ६.१.१३१; ५. 'व्यक्तिविवेको विदधे राजानकमहिमकेनायम्'-व्यक्तिविवेक:- ३.३६, ६. भूमकेन कृतं काव्यं भौमकम् । 'कृते ग्रन्थे' -(अष्टाध्यायी-४.३.११६) इति प्राग्दीव्यतीयोऽण् । __"वासुदेवकवि-समय १५वीं से १६वीं शताब्दी का मध्य । कालिकट के राजा जमूरिन के सभाकवि । इन्होंने पाणिनि
के सूत्रों पर व्याख्या रूप में एक काव्य लिखा था" | डा० श्रीधर भास्कर वर्णेकर-कृत संस्कृत वाङ्मय कोष-प्रथम
खण्ड (ग्रन्थकार), पृ० ४४७; ८. ति. ६.-मातृकागत इस 'अज्ञातकर्तृका टीका' का उक्त दोनों टीकाओं के सम्बद्ध भाग के साथ पूरा मिलान किया
जावे तो इस विषय में कुछ अधिक निश्चित मत दिया जा सकता है। हमारा मिलान बहुत थोड़े अंश से सम्बद्ध है। भविष्य में पूरा मिलान करके इस विषय में कुछ निर्णय करना आवश्यक है। पूरा मिलान न कर सकने का कारण इसका मलयालम-लिपिबद्ध होना है, जिसके वाचन के लिए यहाँ राजस्थान में सहायक उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार के मिलान व तुलना के लिए इस कैरलीटीकोपेत-संस्करण का पृ० २३२ देखें । जहाँ तीन श्लोकों पर उक्त
दोनों टीकाओं के अंश एक साथ उपलब्ध हैं। ९. द्रष्टव्य- 'संस्कृतग्रन्थानां सूचिः'- भाग-५, पृ०-३७; केरल विश्व विद्यालय, कार्यावम-परिसर तिरुवनन्तपुरम.
१९९५ ई. १०. यह ग्रन्थ 'निपाताव्ययोपसर्गवत्तिः' नाम से अप्पल सोमेश्वर शर्मा द्वारा सम्पादित होकर १९५१ ई. में वेङ
विद्यालय तिरुपति से प्रकाशित हुआ था । उक्त संस्करण के उपजीव्य हस्तलेखों के सदोष होने से उसमें कुछ अंश खण्डित हैं, कुछ विपर्यस्त हैं तथा कुछ बहुत ही अशुद्ध रूप में मुद्रित हैं। अर्जुनरावणीय के हस्तलेखों के अन्वेषण के क्रम में केरल विश्वविद्यालय कार्यावट्टम्-परिसर में प्रवास के अन्तराल मुझे यहाँ के प्राच्यविद्या-शोधसंस्थान व हस्तलिखित ग्रन्थालय से 'निपाताव्ययोपसर्गीयम्' का मलयालम-लिपिबद्ध एक अखण्डित ताडपत्रीय हस्तलेख
उपलब्ध हुआ है, जो बहुत अच्छी स्थिति में है। तिरुपति से प्रकाशित पूर्वनिर्दिष्ट संस्करण व इस हस्तलेख के आधार , पर मेरे द्वारा 'निपाताव्ययोपसर्गीयम्' का सम्पादन किया जा रहा है, जो निकट भविष्य में शीघ्र ही प्रकाशित होगा। ११. 'सम्भोगो विप्रलम्भश्च शृङ्गारो द्विविधो मत:'- अलङ्कारसंग्रहः (अमृतानन्दयोगिकृतः)३.१९; १२. 'श्रीरिन्दिरायां शोभायां स्यात्सम्पत्तिलवङ्गयो'रिति- (नानार्थार्णवसङ्क्षेप:- १.१.६०)
-अर्जुनरावणीये कैरलीटीकोपेतसंस्करणे (१.१)पृ० २; १३. 'वल्पितं पुनः । अग्रकायसमुल्लासात् कुञ्चितास्यं नतत्रिकम्'-(अभिधानचिन्तामणिः-४.३१३)
-अर्जुनरावणीये कैरलीटीकोपेतसंस्करणे (२.११) पृ०२९; १४. "राजेन्द्रचोलसञ्जाग्रहारवास्तव्यश्छन्दोग: केशवस्वामी चोलाधिपतेः श्रीकुलोत्तुङ्गचोलसूनोः श्रीराजराजदेवस्य चोदनया
ग्रन्थमेनं प्रणिनायेत्येत्पूर्वपीठिकातोऽवगम्यते । अत एव राजराजसम्बन्धाद् 'राजराजीयम्' इत्यप्यस्य ग्रन्थस्य सज्ञान्तरम्। चोलवंशचरितसंग्रहे कैस्ताब्दस्य द्वादशशतके स्थित एकः कुलोत्तुङ्गचोल: कथितः, तत्पुत्र एको राजराजश्च । त्रयोदशशतकपूर्वार्धे स्थितोऽपरः कुलोत्तुङ्गो वर्णितः, तत्सनुरपरश्च राजराजः । राजराजयोरेनयोरन्यतर: केशवस्वामिन आश्रयः कामं सम्भाव्यते" ।