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________________ Vol. XXXII, 2009 अर्जुनरावणीय (रावणार्जुनीय) की टीका व इसके रचयिता विषय में सूक्ष्म निर्देशों से टीकाकार की अलङ्कारशास्त्र व नाट्यशास्त्र विषयक विशेषज्ञता प्रकट होती है। टीकागत आरम्भिक पद्यरचना से इनकी काव्यकला-कुशलता भी स्पष्टतया प्रतीत होती है१६ । टीकागत अस्फुट पाठ टीका में अनेक स्थलों पर कुछ पद, पदांश, वाक्य व वाक्यांश अस्पष्ट हैं । उन्हें सम्पादन में अधोरेखाङ्कित कर पादटिप्पणियों में उनकी अस्फुटता का संकेत कर दिया है । कहीं-कहीं स्पष्टता के लिए पाद-टिप्पणियों में वैकल्पिक पाठ भी सुझाया गया है । टीका के त्रुटित व लुप्त स्थल कहीं-कहीं उपलब्ध पत्रों के टूटने से टीका के कुछ अंश खण्डित हो गए हैं। इनकी सूचना++++ इस प्रकार के चिह्नों से दी गई है । टीका में जहाँ प्रयोगों की प्रक्रिया दिखाते हुए प्रस्तुत किया कोई सूत्र त्रुटित हुआ है तो उसकी पूर्ति कर दी गई है। इसी प्रकार जहाँ टीका में उद्धृत काशिका की पंक्तियाँ त्रुटित हैं, उनकी पूर्ति भी कोष्ठक में काशिका के आधार पर कर दी है एवं इसकी सूचना पादटिप्पणी में दे दी है। तृतीय खण्ड की टीका के कालिकट से प्राप्त का. रूप में संकेतित ताडपत्रीय हस्तलेख के बण्डल के मध्य में कनिष्ठिका अंगुलि जितना छेद हो गया । मद्रास से प्राप्त म. रूप में संकेतित हस्तलेख इस प्रकार के छेद वाली का. मातृका की ही प्रतिलिपि है, अतः त्रुटित अंश दोनों में समान हैं । इस कारण का. व म. मातृका के आधर पर सम्पादित १९ से २७ सर्ग तक की टीका वाले तृतीय खण्ड में प्रत्येक पृष्ठ पर निश्चित दूरी पर कुछ अंश त्रुटित हो गए हैं । इनकी सूचना भी-++ इस प्रकार के चिह्न से दी गई है । इन स्थलों में जहाँ उद्धृत किए सूत्र या उद्धृत की काशिका की पंक्तियाँ त्रुटित थीं, उन्हें पूरा कर दिया गया है तथा इसकी सूचना पाद-टिप्पणी में दे दी है। ___टीका के द्वितीय खण्ड की मातृका में से कहीं-कहीं कुछ पत्रों के लुप्त हो जाने से कुछ श्लोकों की व्याख्या नहीं मिली । ऐसे श्लोकों की संख्या ६१ है। टीका के उपजीव्य मूलपाठ में भ्रष्ट स्थल टीका का उपजीव्य मूलपाठ अनेक स्थानों पर टीकाकार को बहुत ही विकृत रूप में उपलब्ध हुआ था । टीकाकार ने अगत्या उसी की यथाकथञ्चित् व्याख्या करने का प्रयास किया है । ऐसे स्थलों पर व्याख्या में स्वारसिकता नहीं आ पाई और न ही अर्थसंगति बन सकी । ऐसे स्थलों पर मूलपाठ के समीक्षात्मक संस्करण में शुद्ध व ग्राह्य पाठ उपलब्ध है, उन्हें देखना चाहिए । वहां पाठशुद्धि के कारण अर्थ भी स्पष्ट है। टीका के उपजीव्य मूलपाठ में कुछ स्थल ऐसे भी हैं जहाँ किसी श्लोक का एक अंश किसी अन्य श्लोक के अंश के साथ मिला हुआ है तथा मध्य का भाग लुप्त है। ऐसे स्थलों में यथास्थित पाठ की व्याख्या का संगत होना सम्भव नहीं है, फिर भी अगत्या टीकाकार ने इस रूप में उपलब्ध पद्यों की जैसे-तैसे संगति दिखाने का प्रयास किया है।
SR No.520782
Book TitleSambodhi 2009 Vol 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages190
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size19 MB
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