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Vol. XXXII, 2009 अर्जुनरावणीय (रावणार्जुनीय) की टीका व इसके रचयिता स्मृता ग्रन्थकाराः' शीर्षक के अन्तर्गत उक्त तथ्य से परिचित न होने के कारण- नाम के स्थान पर नामैकदेश के प्रयोग की सम्भावना के आधार पर “घोषः (अश्वघोषः बुद्धचरितकर्ता)" ऐसा लिखा है ।
गणपति शास्त्री का अनुसरण करते हुए भागवृत्ति-सङ्कलनम् ' के कर्ता पण्डित युधिष्ठिर मीमांसकने तथा दुर्घटवृत्ति व भाषावृत्ति के सम्पादक पण्डित श्रीनारायण मिश्रने भी इन स्थलों पर 'घोष' को 'अश्वघोष' मान लिया है । वस्तुतः यहाँ 'घोष' अश्वघोष के लिए नहीं, किन्तु अर्जुनरावणीय ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त है । क्योंकि भाषावृत्तिकार व दुर्घटवृत्तिकार द्वारा 'घोष' नाम से प्रस्तुत उद्धरण अर्जुनरावणीय में ही मिलते हैं, 'अश्वघोष' के 'बुद्धचरित' या 'सौन्दरनन्द' में नहीं । अर्जुनरावणीय के इस नामकरण के पीछे 'घुष्यते व्याकरणप्रयोगबोधार्थमिति घोषः' यही भाव प्रतीत होता है।
यहाँ यह भी अवधेय है कि दुर्घटवृत्तिकार द्वारा बुद्धचरित के वचन-'इदं पुरं तेन विसर्जितं वनं' (८.१३) को 'घोष' नाम से न देकर स्पष्टतया भेद करते हुए 'अश्वघोष' नाम से उद्धृत किया है।
भौमककाव्यम्-रचयिता के नाम का व्यवहार 'भूमक' इस रूप में भी होता है। यह मूल नाम भूमा (भूमन्) से स्वार्थिक कन् प्रत्यय होने पर निष्पन्न होता है । जैसे महिमा से 'महिमक'५ । इस प्रकार भूमक पद भूमभट्ट या भट्टभूमा का अपर पर्याय है । 'भूमक' द्वारा रचित होने से क्षेमेन्द्र ने 'सुवृत्ततिलक' में अर्जुनरावणीय के लिए 'भौमककाव्यम्' यह नाम प्रयुक्त किया है - 'भटिभौमककाव्यादि काव्यशास्त्रं प्रचक्षते' । (सवृत्ततिलक-३.४)
कलेवर- अर्जुनरावणीय में २७ सर्ग हैं । समीक्षात्मक-संस्करण के मूलपाठ के अनुसार इसकी सकल श्लोक-संख्या १७२६ है।
___ काल- क्षेमेन्द्र (१०२८-१०८० ई.) द्वारा 'सुवृत्ततिलक' में भौमक-काव्य को उद्धृत करने के कारण इसका काल ईस्वीय ११वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है । अर्जुनरावणीय-मूलपाठ के समीक्षात्मक संस्करण की भूमिका में हमारे द्वारा प्रस्तुत किए कालनिर्धारण-विषयक तथ्यों के आधार पर भूमभट्ट का समय ईस्वीय नवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य होना चाहिए ।
कथावस्तु-प्रस्तुत काव्य में कार्तवीर्य अर्जुन द्वारा युद्ध में रावण को परास्त कर कारागार में डालना तथा पुलस्त्य के आग्रह पर मैत्रीपूर्वक मुक्त करना वर्णित है । इस कथा का मूलस्रोत रामायणउत्तरकाण्ड के ३१ से ३३ तक ३ सर्ग हैं ।
वैशिष्ट्य- उक्त कथावस्तु के साथ अष्टाध्यायी-सूत्रपाठक्रम से काव्य में सूत्रों के उदाहरणों का गुम्फन ही इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है । इस विधा में उपलब्ध यह एकमात्र प्राचीन महाकाव्य है । संस्कृत-वाङमय में इस शैली की यह एक अनुपम व अद्वितीय कृति है । इसमें वैदिक-सूत्र व स्वर-सूत्र उदाहृत नहीं हैं । हमारे द्वारा सम्पादित मूलपाठ के समीक्षात्मक संस्करण के परिशिष्टभाग में प्रस्तुत उदाहृतसूत्र-वार्तिकानुक्रमणिका के अनुसार अर्जुनरावणीय में २२९० सूत्र व ५० वार्तिक उदाहृत हैं।