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अर्जुनरावणीय (रावणार्जुनीय) की
टीका व इसके रचयिता
विजयपाल शास्त्री
(डा० विजयपाल शास्त्रीने अष्टाध्यायी-सूत्रपाठक्रम से उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले, काश्मीरी महाकवि भूमभट्ट द्वार रचित अर्जुनरावणीयम् (रावणार्जुनीयम्) नामक प्राचीन व्याकरणोदाहरणकाव्य का १७ हस्तलेखों के आधार पर पहली बार समीक्षात्मक सम्पादन किया है। इन हस्तलेखों में से ४ टीकायुक्त हस्तलेखों के आधार पर इसकी केरल में उपलब्ध टीका का पृथक्शः सम्पादन किया है। यहां डा० शास्त्री उक्त महाकाव्य के संक्षिप्त परिचय के साथ इसकी टीका एवं टीकाकार के विषय में विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं । यह काव्य राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान नई दिल्ली द्वारा पृथक्-पृथक् दो संस्करणों में प्रकाशित किया है । एक संस्करण में मूलपाठ का समीक्षात्मक सम्पादन है तथा दूसरे में उक्त काव्य का कैरलीटीका के साथ सम्पादन किया हैउक्त दोनों संस्करण राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान, जनकपुरी नई दिल्ली में उपलब्ध हैं।
सम्पादक) संक्षिप्त परिचय रचना का नाम
__ अर्जुनरावणीयम् (रावणार्जुनीयम्) महाकाव्यम्- उदीच्य मातृकाओं की पुष्पिकाओं में अर्जुनरावणीय व रावणार्जुनीय दोनों ही नाम उपलब्ध हैं, इन मातृकाओं में अधिक प्रयोग 'रावणार्जुनीय' का है । कैरली मातृकाओं में अर्जुनरावणीय नाम ही मिलता है । 'अजाद्यदन्तम्' (२.२.३३) सूत्र से तथा अभ्यर्हित के पूर्वनिपात' की दृष्टि से भी यह अधिक उचित प्रतीत होता है । अर्जुनश्च रावणश्च अर्जुनरावणौ, तावधिकृत्य कृतं काव्यम् अर्जुनरावणीयम् । 'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' (४.३.८७) इत्यधिकारे 'शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वेन्द्रजननादिभ्यश्छ:' (४.३.८८) इति छप्रत्ययः । रचना के अन्य नाम
घोषः- यह नाम शरणदेव (११७२ ई.) ने दुर्घटवृत्ति में तथा पुरुषोत्तमदेव (१२०० ई.) ने भाषावृत्ति में अर्जुनरावणीय के उद्धरण देते हुए इस ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त किया है । इस नाम के पीछे 'घुष्यते रट्यते छात्रैर्व्याकरणप्रयोगबोधार्थम् इति घोषग्रन्थः' यह भाव प्रतीत होता है । 'घोष' नाम के विषय में आधुनिक विद्वानों की भ्रान्ति
दुर्घटवृत्ति के प्रथम सम्पादक महामहोपाध्याय त. गणपति शास्त्रीने भूमिका के अनन्तर 'दुर्घट वृत्तौ