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विभूति वि० भट्ट
SAMBODHI
और मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल का परममित्र था ।
वि० सं० १२८७ फाल्गुन कृष्ण ३ रविवार की अर्बुदगिरि पर के जगप्रसिद्ध देउलवार(ड) देलवाडा में तेजपालने नेमिनाथ प्रासाद का निर्माण करवाया था। जो आज भी गुजरात की अस्मिता का साक्षीभूत
और 'तेजःपाल प्रशस्ति' या 'नेमिनाथ प्रशस्ति' या लूणवसहिका प्रशस्ति से पहचानी जाती है। भीमदेव (२) के महामण्डलेश्वर (सामन्त) की राजधानी चंद्रावती स्थित राजा सोमसिंह की अनुमति से तेजपालने अपनी पत्नी अनुपमादेवी और उसके पुत्र लूणसिह के पुण्योपार्जन हेतु यह जिनप्रासाद बनवाया। इसके निर्वाह हेतु वहाँ के राजा सोमसिंह ने उबाणी (बासठ परगनेमें से एक) गाँव की भेट-दान दिया था ।
__ इस शिलालेख (शि० ले०) की दो नकल भिन्न काल दिखाती है। इसके बारे में अनेक विद्वानोंनेश्री प्रो० काथवटे, प्रो० ल्युडर्स, प्रो० किल्होर्न, श्री. गि० व० आचार्य, मुनिश्री जिनविजयजी, श्री एल० बी० गांधी, डॉ० बी० जे० सांडेसरा, डो० अन० ए० आचार्य इत्यादिने उस समयकी ऐतिहासिक राजकीय इत्यादि विभिन्न दृष्टि से चर्चा की हैं। इतने सारे विद्वानों की इसी सोमेश्वर की रचना पर चर्चा होने से इस इष्टापूर्त करानेवाला और उसकी प्रशस्ति करनेवाला कवि-दोनों का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है। और इस प्रशस्ति की लोकप्रसिद्धि इसलिये सिद्ध होती है कि इसकी पाण्डुलिपि-हस्तलिखित रुपमें वि० स० १७४२ की भी उपलब्ध होती है । (ला० द० विद्यामन्दिर पांडुलिपि, नं० ५२७) ऐसे जगप्रसिद्ध इष्टापूर्तो करानेवालों को नजरमें रखते हुए कवि सोमेश्वर बोल उठा
कुरु सुकृतं सुकृत सुकृतं, नित्यमेव कुरु सुकृतं ।
येन भवति शुभं शुभं शुभं नित्यमेव भवति शुभं ॥ इस प्रशस्तिमें सोमेश्वरदेवने भावपूर्वक अलङ्कत संस्कृत में, ७४ श्लोकों १३ प्रकार के विविध छंदो में मंत्री के समग्र परिवार के सदस्यों, तेजपाल की पत्नी अनुपमादेवी के पितृकुल प्राग्वाट वंश के राजाओं की राजधानी 'चंद्रावती' अर्बुदगिरि में बसी हुई है। वहाँ अनुपमादेवी के पिता गागा के साथ पुत्र 'धरणिग' और माता त्रिभुवनदेवी थी। उनकी पुत्री अनुपमा देवी, जो मंत्री तेजपाल की पत्नी थी, उनका पुत्र लावण्यसिंह या लूणसिंह गुणवान् और धनिक था (श्लो० ५०-५७) । अनुपमादेवी पत्नी और पुत्र लावण्यसिंह के कल्याण के लिये तेजपालने अर्बुदगिरि पर नेमिनाथ प्रासाद बनवाया (श्लो० ५८-६०)। आबू के राजवंश की बातें जानने के लिये यही प्रशस्तिका सभी आधार लेते हैं ।
प्रशस्ति के मंगलाचरण में भी श्लिष्ट और विरोधाभासी पदों की परंपरा में देवी सरस्वती, गणेश और नेमिनाथ की वंदना कविने कुशलता व खूबी से की है जिसमें जैन और ब्राह्मणा धर्म के देवों को लागू की जाय (श्लो० १) उसके पर प्रो० ल्यूठर्स और मुनि पुण्यविजयजी इत्यादि का ध्यान पड़ा था। यहीं से ही कवि की कृति का महत्त्व शुरु होता है। उसमें 'प्रकोपे शांतोऽपि', 'निमीलिताक्षोऽपि समग्रदर्शी' में दिखाइ देता है।
नेमिनाथ के आगे भव्य मंडप, बावन जिनालय, दोनों बाजू पर ५२ बलानक और खत्तक करवाये। आगे के भाग में वस्तुपाल के अग्रिम दो भ्राता लूणिग और मल्लदेव (मल्लिदेव) की (श्लो० ८-१३)