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गुजरात के चौलुक्य-सोलंकी कालीन अभिलेखों में
सोमेश्वर देव का महत्त्वपूर्ण प्रदान
विभूति वि० भट्ट
१३ वीं शताब्दी में गुजरेश्वर राजपुरोहित-राजकवि सोमेश्वरदेव गुजरेश्वर चौलुक्य राजा भीमदेव (२), चौलुक्यवंश की दुसरी शाखा वाघेला-सोलंकी वंश के आर्णोराज→ लवणप्रसाद(भूणपसाक)→ वीरधवल→ वीसलदेव एवं गुजरेश्वरमंत्रीवर प्राग्वाट् कुलके जैन वणिक वस्तुपाल-तेजपाल के समकालीन एक विद्वान ब्राह्मण थे ।
'वसिष्ठ कुल और गुलेचा' (वा ?) गोत्र के सोमेश्वरदेवने और उसके अपने पूर्वजोंने अपने अपने समकालीन गुजरेश्वर मूलराजादि के अपने वंशपरंपरागत पौरोहित्यादि कर्मों से सन्मान, समृद्धि और प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि की और उनके सारस्वत मण्डल-राज्यमें अभिवृद्धि (संपत्ति और राज्य की) की और रक्षण किया । इसलिये यह पुरोहित अपने पूर्वजों सहित राजाओं से संपूजित और सन्मानित थे। उनके चरणारविंद की राजाओं पूजा करते थे।
उसने ज्यादा से ज्यादा २५ (सन्-१२२०-१२४४) साल धोलका (धवलक्कक) में और कमसे कम ११ (सन् १२४४-१२५५) साल अणहिलपुर (अण०पा०) में अपनी कारकिर्दी का जीवन व्यतीत किया।
उपरोक्त ये तीनों कुल के- चौलुक्य, वाघेला और प्राग्वाट के साथ यह गुलेचा (वा) कुल-ये चारों कुल को सोमेश्वरने अपनी विद्वत्ता और धार्मिक विशाल भावना से सुशोभित और गौरवान्वित किया। ये चारों कुल के राजपुरुषों वंशपरंपरा से गुजरेश्वर राजधानी अण० पा० में ही रहते होंगे। और अपने परस्पर कौटुम्बिक संबंध भी समकालीन होनेसे परापूर्व से चलता आया होगा । लेकिन भीमदेव (२) ने दोतीन बार राज्य गँवाया और पुनः प्राप्त किया। इस बीच के राजकीय अंधकार काल को नष्ट नहीं होने देनेवाली बात सोमेश्वरदेवने अपनी कृतियों में और अपने दुसरे महाकाव्य "सुरथोत्सव" के अंतिम सर्गकविप्रशस्ति वर्णन में लिखी नहीं होती तो भीमदेव-२ के उत्तरकालीन और वीसलदेव का गुर्जरेश्वर होने के बीच के काल पर कोइ निश्चित प्रकाश नहीं पड सकता था । हमे कुछ भी ज्ञात नहीं होता । अलबत्त विविध जैन प्रबंधादि और किंवदन्ती यों में ही सिर्फ यह बात रह जाती । उसकी शिलाओं पर लिखित प्रशस्ति (१) अर्बुदगिरि, (२) शत्रुञ्जय, (३) गिरनार, (४) गणेशर और (५) दर्भावती (डभोई) में आज भी सुरक्षित है, जो सोमेश्वरदेव की रचना के साक्षीभूत है और वहाँ की उन घटनाओं का साक्षीभूत विद्वान