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तनूजा सिंह
SAMBODHI
के भौतिक माध्यम प्रायः ऐसी सामग्री पर आधारित हैं जिनके प्रयोग की आवश्यकता मनुष्य को अब तक रही है और आगे भी रहेगी । सभ्यता के विकास में परिवर्तन आया है व चित्रकला भी प्रभावित रही है। चित्र में आकृतियों, रंगो की मात्रा के माध्यम से रूप और घटनाओं को प्रस्तुत किया जाता है।
राजस्थान की लोक चित्रकलायें तत्कालीन व वर्तमान मानव के सौन्दर्य बोध, परिष्कृत अभिरुचि, क्ल्प नाशील एवं उर्वर मस्तिष्क के परिचायक हैं परन्तु यह कह पाना दुष्कर है कि इस पुरानी सामग्री का उनकी धार्मिक आस्थाओं, विश्वास एवं परम्पराओं से कितना सम्बन्ध है । प्राय: देखा गया है कि यहाँ की लोक चित्रकला के दो स्वरूप मिले हैं । एक लोक कलात्मकता तथा दूसरा दरबारी कलाएँ जनजीवन का अभिन्न अंग हैं । एवं वे ग्रामीणों के आन्तरिक सौन्दर्य, कलात्मक अभिव्यक्ति, लोक रंजकता आदि की परिचायक हैं साथ ही ये कलाएँ उनके सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन से जुड़ी विभिन्न परम्पराओं, विश्वासों, अंधविश्वासों की सरल स्वाभाविक अभिव्यक्ति हैं । राजस्थानी लोक चित्रकलायें एक समृद्धिशाली परम्परा रही है जिसे वर्गीकृत किया जा सकता है ।
राजस्थान में भित्ति चित्रण की परम्परा आदिम काल से रही है । भरतपुर के दर्र तथा कोटा के आलणियाँ के शैलाश्रयों के रेखांकनों में आदिम स्वरूप हैं। वर्तमान में सवाईमाधोपुर के मीणा जाति जैसे जीनापुर, कुशलता, बेगमपुरा, एकडा, गंभीरा आदि में लोककलाओं में मांडने दिखते हैं। होली एवं दीपावली जैसे त्यौहारों से पूर्व महिलायें अपने घरों को मिट्टी से लीपना-पोतना शुरु कर देती हैं तथा खड़िया मिट्टी से दीवार पर, चबूतरों पर, अनाज की कोठी, चूल्हा, चक्की आदि दैनिक जीवन के उपयोग में आनेवाली सामग्री पर अनेक रूपाकार उकेरती हैं । मीणा जाति के व्यक्तियों में पक्षी मोर से अधिक लगाव रहा है, इसलिये माँडना में मोर, बिल्लियों को जोड़ा, हाथी, घोडा, बैल, सिंह, चिड़िया, मुर्गा, पनिहारिन, घुड़सवार आदि दीवार पर अधिक बनाते हैं । शादी के अवसर पर हाथी, घोड़े, ऊँट, शेर, छड़ीदार, चँवरधारिणी, पनिहारिन और घर के अन्दर गणेश, रिद्धि-सिद्धी, लक्ष्मी, स्वास्तिक, कलश, फूल-पत्ती को बनाना शुभ माना गया है । इन चित्रों में काले रंग से रेखांकन व अन्दर अन्य रंगों का प्रयोग किया जाता है।
___ गाँवो में अभी भी रक्षा के लिये यक्षमूर्ति के समान ही देवता का अंकन पथ का रक्षक के रूप में किया जाता है । गाँव से बाहर जाने से पूर्व पूजा की जाती है जिसके चारों ओर चित्र बने होते हैं। एक ओर काला-गोरा भैरूंजी तथा दूसरी ओर कावड़िया वीर (श्रवणकुमार) व एक ओर गंगाधर तथा घट के दोनों ओर दो आँखें इन्हें सजीवता प्रदान करती हैं ।
छोटी जातियों के लोग जो मन्दिरों में प्रवेश से वंचित हैं वे देवरे स्वयं बना लेते हैं । अतः विभिन्न स्थानों पर रामदेव जी, तेलियों का, कुम्भकारों का, भैरूं जी का, तेजाजी आदि के देवरे बने मिलते हैं। देवरे के पीछे की छोटी दीवार पर गणेश जी, दुर्गा, काला-गोरा, भैरूं जी के साथ कुत्ता व तेजाजी के साथ सर्प बने रहते हैं । ये अमूर्त, अर्द्ध अमूर्त चित्र भक्त के लिये आस्थावान हैं । इसी प्रकार साझी पूजन की परम्परा भारत के अन्य राज्यों की भांति राजस्थान में भी प्रचलित है। एक ही जाति की कई कन्यायें मिलकर रेखाओं को उभारकर काँच, पंख, चूड़ी, कौड़ी, पत्थर, कपड़ा, कागज, लाख, फूल आदि का प्रयोग कर आकृति बनाती हैं ।