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राजस्थान की लोक चित्रकला
राजस्थान में घर की दीवारों को अलंकृत करने के साथ ही घर की देहली, आँगन, चौक, पूजा का स्थान आदि पर भी मांडणे बनाये जाते । केवल गेहूँ, चूना अथवा खड़िया से गोबर लिपी सतह पर विभिन्न अवसरों पर अलग-अलग नमूनों से अलंकरण किया जाता है। विवाह पर गणेश जी, लक्ष्मी जी के पैर, स्वास्तिक आदि शुभ प्रतीकों के साथ गालीचा, मोर, मोरनी, गमले, कलियाँ, बन्दनवार, बच्चे के जन्म पर गलीचा, फूल स्वास्तिक, रक्षा बन्धन पर श्रवणकुमार, गणगौर पर मिठाई, घेवर, लहरिया, तीज पर घेवर, लहरिया चौक फूल आदि, होली और दीपावली पर बड़े नमूने मांडे जाते हैं। होली पर चंग, ढ़प, ढ़ोलक आदि दीपावली पर दीपक, थाली, पान सुपारी, मिठाईयाँ आदि की आकृति में बड़े माँडने बनाये जाते हैं | इसके अतिरिक्त राजस्थान में लगभग पाँच सौ वर्ष पुरातन पट-चित्रण परम्परा देखने को मिलती हैं१° । उदयपुर, भीलवाड़ा व शाहपुरा कस्बों के छीपा जाति के चितेरे आज भी पट-चित्रण करते हैं । इसे राजस्थानी भाषा में 'फड' भी कहा जाता है। यह फड़ चारण (भोपों) के लिये बनाई जाती है जो कि जीविकोपार्जन हेतु है। भोपे पटचित्र को लकड़ी पर लपेट कर गाँवों में पारम्परिक वस्त्रों को पहन कर रावण हत्था १९ या जन्तर १२ वाद्य यन्त्र की धुन के साथ नाचते व गाते हैं । यहाँ लोक नाट्य, वाद्य, गायन, वादन, मौखिक साहित्य, चित्रकला व लोक धर्म विज्ञापन कला का संगम देखने व सुनने को मिलता है। फड़ चित्रण को तैयार करने की विधि में मोटे दो सूती कपड़े पर गेहूँ या चावल के माँड में गोंद मिलाकर कलफ लगा कर सतह तैयार होने पर घोटी से घोटकर समतल किया जाता है फिर लगभग सात रंगों के प्रयोग में गेरू, हिरमिच, प्योड़ी, सिन्दूर, काजल, चूना व नील आदि का अधिक प्रयोग किया जाता है । सतह पर हल्के पीले रंग से सर्वप्रथम रेखांकन कर खाका बनाया जाता है व रेखाओं द्वारा कुछ भागों में विभाजन कर चौखानों में मानवाकृतियों, पशु-पक्षी, प्रकृति के आकारों को संजोया जाता है । सिन्दूरी रंग शरीर में, फिर हरा व लाल रंग कपड़ों में, भूरा वास्तु-निर्माण में एवं अन्तिम रेखाएँ केवल काले रंग से की जाती हैं। रंगो को गाढ़ा टेम्परा रंगो की तरह प्रयोग किया जाता है | अधिकतर लोक देवताओं, लोक नायकों जैसे पाबूजी, देवनारायण, रामदेव के अतिरिक्त श्रीराम-कृष्ण व माताजी की फड़ बनाने का भी प्रचलन है । जिसमें देवताओं के जीवन की असंख्य घटनाओं व उनसे सम्बन्धित चमत्कारों के ब्यौरों को चित्रित किया जाता है । जिसमें प्रमुख आकृति को सबसे बड़ा बनाकर प्रधानता व केन्द्रत्व दिया जाता है। देवियों को नीला, देव को लाल, राक्षस को काला, साधु सफेद या पीले या सिन्दूरी व लाल रंग को वीरता का परिचायक है। ये सभी आकृतियाँ गतिशील मुद्रा में आकर्षित करती हैं। चेहरे एक चश्म तीखे नाक नक्श जैन शैली के समान होते हैं । इसके अतिरिक्त कागज पर बने देवी-देवताओं के चित्रों को विभिन्न उत्सवों व त्यौहारों पर पूजा जाता हैं । इस प्रकार के चित्र विभिन्न मेलों में बिकते हैं तथा मिट्टी के बने खिलौने एवं काठ की बनी कठपुतलियों पर चित्रकारी का कार्य देश व विदेशों में भी सराहनीय रहा है ।
Vol. XXXI, 2007
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इसीलिये राजस्थानी लोक चित्रकलायें हृदय का धन हैं। कलाकार ने सरल माध्यम तथा सरलतम विधि से हृदय की भावनाओं को व्यक्त किया है। इसी से लोक कला में सहज संबोधता रही है इसी से उसकी अपील सीधी होती है, लोक चित्रकला में रस होता है। लोक कलाकार प्रकृति के उन्मुक्त क्षेत्र में रहा है और वहाँ उसकी स्वच्छन्दवृत्ति निरन्तर आनन्द का अनुभव करती रही है। इसकी आकृतियाँ