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________________ Vol. xxx, 2006 नैयायिक ज्ञान का साधन प्रत्यक्ष प्रमाण 147 को मानने पर सभी आदमी सर्वज्ञ बन जायेंगे, कारण कि संसार के जितने भी ज्ञेय पदार्थ हैं, सभी में ज्ञेयत्व नामक सामान्य गुण होगा । अब यदि किसी एक पदार्थ का प्रत्यक्ष होगा तो उसके ज्ञेयत्व के प्रत्यक्ष के द्वारा सभी ज्ञेय पदार्थों का प्रत्यक्ष हो जायेगा । दूसरे ज्ञान-लक्षण प्रत्यक्ष में हमारी इन्द्रियों को अपने साधारण विषयों से भिन्न विषय का भी प्रत्यक्ष होता है। जैसे हम प्रायः कहते हैं 'चन्दन सुगन्धित दीख पडता है।' इसमें चन्दन से सन्निकर्ष दृश्य इन्द्रिय का होता है किन्तु ज्ञान घ्राणेन्द्रिय का विषय होता है। वुण्ट, वार्ड तथा स्टॉट जैसे पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक ऐसे अनुभवों को 'complication' की संज्ञा देते हैं । न्यायदर्शन में भ्रम या विपर्यय की व्याख्या इसी प्रत्यक्ष के सहारे की गयी है। तीसरे अलौकिक ज्ञान को हम योगज प्रत्यक्ष कहते हैं । यह ज्ञान योगियों को होता है । इसके द्वारा भूत, वर्तमान भविष्य, गूढ, सूक्ष्म, दूर-सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात अनुभूति होती है। अतः नैयायिक प्रत्यक्ष के विशिष्ट स्वरूप का उद्घाटन तो करते ही हैं किन्तु ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानकर वेदान्तियों की प्रखर आलोचना का विषय बनते हैं ।१५ नैयायिकों के इस कथन को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त पदार्थ का ज्ञान मन से ग्रहण कर आत्मा तक पहुँचाये जाने के कारण ही हम एक समय में एक ही वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान विकसित मन की क्षमताओं को इतना कम करके नहीं आँकता है। प्राचीन समय में ऐसे अनेक संस्कृत कवि हुए हैं जिनके अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जो एक ही समय में अपनी काव्य-शक्ति का परिचय देते हुए एक से अधिक विषयों की समस्या-पूर्ति अपने काव्य-कौशल के माध्यम से करते थे ।१६ पादटीप : १. सर्वप्रमाणानां प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् । न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका १.१.३ २. ".......the truths known by intution are the original premises from which all others are inferred". -A system of logic Page. 3 प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् । वार्हस्पत्य सूत्र प्रत्यक्षत्वादनुमानाप्रवृत्तेः । -ब्रह्मसूत्रभाष्य उमास्वाति प्रभृति प्राचीन जैन दार्शिनिकों के अनुसार अपरोक्ष ज्ञान उसी को कहते हैं जो बिना किसी माध्यम के हो। हेमचन्द्र आदि अन्य विद्वानों ने साधारण इन्द्रिय-ज्ञान को भी अपरोक्ष माना है । यही मत अन्यान्य भारतीय पण्डितों का भी है। पहले मत के समर्थन में यह कहा जाता है कि 'अक्ष' शब्द का अर्थ 'जीव' है, उसका अर्थ इन्द्रिय नहीं, जैसा साधारणतः समझा जाता है। (षडदर्शन-समुच्चय पर गुणरत्न की टीका देखिए, श्लोक ५५, चौखंबा संस्करण)। ६. तत्त्वार्थसूत्र, १/३१ सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम् । - प्रमाणमीमांसा १, १५ ८. तत्वार्थसूत्र, १/२९ ९. षड्दर्शन-समुच्चय पर गुणरत्न की टीका, श्लोक, २५ १०. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानम् अव्यपदेश्यम् अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् । न्यायसूत्र १.१.४
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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