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________________ 146 हेमलता श्रीवास्तव SAMBODHI आचार्य विश्वनाथ ने प्रत्यक्ष की दूसरी परिभाषा दी है - प्रत्यक्ष वह अपरोक्ष ज्ञान है जो ज्ञानान्तरजन्य नहीं है । इस परिभाषा में लौकिक या अलौकिक सभी प्रकार के प्रत्यक्ष की व्याख्या हो जाती है और साथ ही अनुमानादि अन्य प्रमाणों से प्रत्यक्ष का अन्तर भी स्पष्ट हो जाता है। चूंकि ज्ञान आत्मा में उत्पन्न होता है अतः आत्मा भी प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए आवश्यक है । लौकिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय, पदार्थ, मन और आत्मा की तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध की अपेक्षा करता है । आत्मा मन के संसर्ग में आता है, मन इन्द्रियों के संसर्ग में और इन्द्रियाँ पदार्थों के संसर्ग में आती हैं । इन्द्रियों का पदार्थों से संसर्ग तब तक सम्भव नहीं है जब तक मन पहले इन्द्रियों के संसर्ग में न आ जाय और इन्द्रियों से मन का संसर्ग तब तक संभव नहीं है जब तक आत्मा पहले मन के संसर्ग में न आ जाय । मन, आत्मा और इन्द्रिय के बीच मध्यस्थ है । बाह्य पदार्थ इन्द्रिय और मन के माध्यम से आत्मा के ऊपर एक संस्कार (प्रभाव) डालते हैं। इस प्रकार न्याय का प्रत्यक्ष सिद्धान्त वस्तुवादी बन जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के अन्दर न्यायवार्तिक्कार उद्योतकर ने सन्निकर्ष के छ: प्रकार बताये हैं संयोग, संयुक्त समवाय, संयुक्त-समवेत-समवाय, समवाय, समवेत समवाय तथा विशेषण विशेष्य भाव इनमें से सभी सन्निकर्ष इन्द्रिय और पदार्थ की उपस्थिति और भाव से सम्पन्न होते हैं किन्तु नैयायिक अभाव को भी अपने प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय बना लेते हैं । यह उनके प्रत्यक्ष ज्ञान की एक और विशिष्टता है। नैयायिकों के अनुसार किसी भी अभाव के प्रत्यक्ष में विशेषण-विशेष्य-भाव का सन्निकर्ष होता है । जब किसी वस्तु का अभाव परिलक्षित होता है तब स्वतः अभाव को नहीं देखा जाता बल्कि अभाव से युक्त उसके आधार को देखा जाता है उदाहरणार्थ, 'भूतल में घट नहीं है' इस विशेषण (घटाभाव) को हम अपने आप में नहीं देखते बल्कि इसे अपने विशेष्य (भूतल) की विशेषता के रूप में देखते हैं। इसी प्रकार घट के प्रत्यक्ष में संयोग, घटरूप (वर्ण) के प्रत्यक्ष में संयुक्त समवाय, घटरूपत्व के प्रत्यक्ष में संयुक्तसमवेत-समवाय शब्द के प्रत्यक्ष में समवाय, शब्दत्व के प्रत्यक्ष में समवेतसमवाय के सन्निकर्ष को मानते हैं ।१४ किन्तु दार्शनिकों के द्वारा अभाव विषयक प्रतीति के प्रसंग में पर्याप्त मतभेद हैं । उनके अनुसार अभाव-ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा संभव नहीं है। अनुमान द्वारा ही इसका ज्ञान किया जा सकता है। भाट्ट मीमांसा और वेदान्त में इसके ज्ञान के लिए 'अनुपलब्धि' नामक एक स्वतन्त्र प्रमाण ही मान लिया गया है । यहाँ हमारा मूल उद्देश्य प्रत्यक्ष के भेदों और उसकी प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया को विवेचित करना नहीं है। इसलिए हम न्याय द्वारा अलौकिक प्रत्यक्ष के उन भेदों को लेते हैं जिनमें प्रत्यक्ष का विशिष्ट रूप परिलक्षित होता है । इसमें इन्द्रियार्थसन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है । यही अलौकिकत्व इस की विशेषता है । यह प्रत्यक्ष ज्ञान होते हुए भी प्रत्यक्ष की रीति से ग्रहण किये जानेवाला ज्ञान नहीं है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय न होते हुए भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है । सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष में हम सामान्यों का प्रत्यक्ष करते हैं । वस्तुवादी नैयायिक सामान्यों को सत् मानते हैं। मनुष्य को देखकर मनुष्यत्व और गाय को देखकर गोत्व का प्रत्यक्ष सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के द्वारा होता है। प्राचीन नैयायिक इस प्रकार के प्रत्यक्ष की व्याख्या 'संयुक्त समवेत समवाय' नामक सम्बन्ध द्वारा करते हैं । किन्तु नव्य न्याय इस व्याख्या को पर्याप्त नहीं मानता क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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