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________________ Vol. xxx, 2006 नैयायिक ज्ञान का साधन प्रत्यक्ष प्रमाण 145 अनुसार मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान तथा अवधि-ज्ञान में दोष की सम्भावना रह जाती है। किन्तु मनःपर्यायज्ञान तथा केवल-ज्ञान सर्वथा दोषरहित हैं। वस्तुतः यही शुद्ध ज्ञान है जिसे हेमचन्द्राचार्य ने आत्मा के 'स्वरूपाविर्भाव' की संज्ञा दी है और जिसे आचार्य गुणरत्न ने 'पारमार्थिक-प्रत्यक्ष' कहा है। जब ज्ञान के सभी बाधक-कर्म जीवात्मा से दूर हो जाते हैं तब केवल ज्ञान प्राप्त होता है। यह सभी पदार्थों एवं उनके परिवर्तनों का पूर्ण ज्ञान है। यह ज्ञान मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है । यद्यपि जैन अवधि और मनःपर्याय ज्ञान को पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान की कोटि में रखते हैं और यह मानते हैं कि यह ज्ञान बिना इन्द्रियों की सहायता के प्राप्त किया जाता है किन्तु यह सर्वविदित है कि मन की थोड़ी एकाग्रता और उसके थोड़े प्रशिक्षण के द्वारा इस प्रकार का अथवा इसके जैसा अवधि और मनःपर्याय ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। तीसरे स्थान पर न्याय का विवेचन है जो सम्भवतः सर्वाधिक स्पष्ट और विस्तृत है। उसमें भी प्रत्यक्ष को केवल इन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में ही ग्रहण नहीं किया गया है। वहाँ प्रत्यक्ष का विशिष्ट स्वरूप अलौकिक प्रत्यक्ष के रूप में दिखाई देता है किन्तु इसकी चर्चा करने के पूर्व थोड़ी लौकिक-प्रत्यक्ष की चर्चा करना भी अपेक्षित है। सामान्यतः इन्द्रिय और वस्तु के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। गौतम ने न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है कि प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञान है जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक होता है । वाचस्पति मिश्र अव्यपदेश्य का अर्थ नामजात्यादिकल्पनारहित निर्विकल्प ज्ञान, व्यवसायात्मक का अर्थ नामजात्यादिविशिष्ट सविकल्प प्रत्यक्ष तथा अव्यभिचारी का अर्थ अभ्रान्त करते हैं । अन्नंभट्ट ने भी प्रत्यक्ष का अर्थ इन्द्रियों का विषय से सम्पर्क होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न ज्ञान किया है ।११ वस्तु के साथ इन्द्रिय के सम्पर्क होने से जो अनुभव उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष के इस लक्षण को अनेक भारतीय दार्शनिक स्वीकार करते हैं । पाश्चात्य दार्शनिक भी इसे मानते हैं । कालान्तर में आचार्य विश्वनाथ एवं गंगेश उपाध्याय आदि नव्य-न्याय के विचारकों ने दिखाया कि प्रत्यक्ष की उपरोक्त परिभाषाएँ अत्यन्त संकीर्ण हैं । इनमें प्रत्यक्ष ज्ञान के वे ही प्रकार आते हैं जो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष अपेक्षित हैं । किन्तु योगज आदि प्रत्यक्ष ज्ञान के ऐसे भी प्रकार हैं जो इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष के बिना प्राप्त होते हैं । ईश्वर को सभी विषयों का प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु उसके कोई भी इन्द्रिय नहीं है । उदाहरण के लिए, जब रस्सी को भ्रमवश मैं साँप समझ लेती हूँ तो इन्द्रिय-संयोग का अभाव रहता है, क्योंकि वहाँ कोई वास्तविक साँप नहीं है जिसके साथ आँखों का सम्पर्क हो । सुख-दुःख आदि जितने मनोभाव हैं सभी का प्रत्यक्ष इन्द्रिय-संयोग के बिना ही होता है। इन सब दोषों के कारण गंगेश उपाध्याय 'इन्द्रिय वस्तु सम्पर्क' को प्रत्यक्ष का सामान्य लक्षण नहीं मानते । उनके अनुसार प्रत्यक्ष का सामान्य लक्षण है विषय की साक्षात प्रतीति ।१२ उदाहरण के लिए जब अचानक हमारे सामने एक बाघ उपस्थित हो जाता है तो हमें सीधे उसका ज्ञान होता है, इसमें न किसी तर्क या अनुमान की आवश्यकता होती है और न इसके लिए समय ही रहता है ।
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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