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________________ 129 Vol. xxx, 2006 पञ्चीकरणम् : एक विश्लेषण पञ्चीकृतानि भूतानि तत्कार्यं च विराड् भवेत् । स्थूलं शरीरमेतत्स्यादशरीरस्य चात्मनः ॥११॥ उसके बाद उन सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं से स्थूल पञ्चमहाभूत हुए । उन महाभूतों से विराट् हुआ (विराट् या वैश्वानर वह चेतन तत्व [आत्मा] है, जो सृष्टि के सभी स्थूल पदार्थों में अभिमानी होकर विद्यमान है)। अगले पद्यों में पञ्चीकरण की प्रक्रिया को समझाया गया है। पहले पृथिवी आदि सभी (सूक्ष्म) भूतों के दो दो भाग करें । पुनः इनमें से एक एक भाग के चार चार भाग करके एक एक भाग सब भूतों में क्रमश: जोड दें। इस प्रकार आकाश में पाँच भाग (तत्व) होते हैं - अपना आधा. तथा वाय इत्यादि अन्य चार सूक्ष्मभूतों में से प्रत्येक के आधे का चतुर्थांश (समग्र का १-८)। इन पाँच भागों के सम्मेलन से आकाश महाभूत बनता है। वायु में आधा भाग अपना तथा अन्य प्रत्येक चार के आधे-आधे भाग का चतुर्थांश सम्मिलित होता है। इसी प्रकार अन्य भूतों में यह पञ्चीकरण की प्रक्रिया होती है। इन पञ्चीकृत स्थूल भूतों का कार्य विराट् है यही आत्मा का स्थूल शरीर है (विविधं राजमानत्वात् विराट) सृष्टि के सभी तत्वों में पंचमहाभूतों की विद्यमानता की विवधता के कारण यह विराट् है । इसी का नाम वैश्वानर है (विश्वेषु समस्तेषु नरेषु अहमित्यभिमानित्वात् वैश्वानरः) । पञ्चीकरण की इस प्रक्रिया को आचार्य सदानन्द (सोलहवीं शती उत्तरार्ध) ने वेदान्तसार में इसी प्रकार परन्तु कुछ अधिक स्पष्ट करके समझाया है । ...........एवं सूक्ष्मशरीरोत्पत्तिः । स्थूलभूतानि तु पञ्चीकृतानि । पञ्चीकरणं त्वाकाशादिपञ्चस्वेकैकं द्विधा समं विभज्य तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान्पंचभागान् प्रत्येकं चतुर्धा समं विभज्य तेषां चतुर्णा भागानां स्वस्वद्वितीया भागपरित्यागेन भागान्तरेषु योजनम् । तदुक्तम्द्विधा विधाय चैकेकं चतुर्धा प्रथम पुनः । स्वस्वेतर द्वितीयांशैर्योजनात्पञ्चपञ्च ते ॥ पंचदशी से उद्धृत । स्थूल महाभूतों की उत्पत्ति पञ्चीकरण की प्रक्रिया से हुई । आकाशादि सूक्ष्मभूतों (पंचतन्मात्राओं) में से प्रत्येक को पहले दो भागों में विभक्त करके प्रथम भाग के पुनः चार चार समभाग करें । प्रत्येक महाभूत में आधा भाग अपना है और शेष आधा अंश अन्य चार भूतों के अर्ध-अर्धांश का चतुर्थ भाग है। पञ्चीकरण की यही प्रक्रिया है। ऐसा मानने पर प्रत्येक महाभूत में शब्दस्पर्शरूपरसगन्ध पाँचों गुणों की स्थिति हो जाती है। इन पाँचों गुणों की प्रत्येक महाभूत में उपस्थिति होने पर इनको आकाशादि एक नाम से क्यों कहा जाता है इसके उत्तर की अपेक्षा में यह कहना आवश्यक हुआ - पञ्चानां पञ्चात्मकत्वे समानेऽपि तेषु च "वैशेष्यात्तु तद्वादस्तद्वादः" (ब्र. शांकरभाष्य २-४-२२) इति न्यायेनाकाशादि व्यपदेशः सम्भवति । तदानीमाकाशे शब्दोऽभिव्यज्यते, वायौ शब्दस्पर्शी, अग्नौ शब्दस्पर्शरूपाणि, अप्सु शब्दस्पर्शरूपरसाः, पृथिव्यां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्च । प्रत्येक महाभूत में स्वकीय गुण के आधिक्य तथा वैशेष्य के कारण आकाशादि संज्ञा होती है । संज्ञाकरण तक तो बात ठीक है परन्तु एक ओर तो जिस पञ्चीकरण प्रक्रिया को प्रस्तुत किया जा रहा है उसके अनुसार प्रत्येक महाभूत में पाँच-पाँच गुणों की स्थिति बनती
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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