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________________ 130 जयपाल विद्यालंकार SAMBODHI है और दूसरी ओर आकाशादि महाभूतों में क्रमश: एक, दो तीन, चार और पाँच गुण मान रहे हैं। वार्तिककार सुरेश्वराचार्य और बाद में इन्हीं का अनुसरण करते पंचदशीकार तथा वेदान्तसार के रचनाकार आचार्य सदानन्द का यह वदतो व्याघात दूसरा आपत्ति का कारण है । ___ आकाश में शब्दातिरिक्त रूपरसगन्धस्पर्श चारों गुणों की वस्तुतः सत्ता है परन्तु हम उपर्युक्त वैशेष्य के कारण आकाश में व्यवहार के लिये केवल एक ही गुण मानते हैं और इसी प्रकार वायु में गुण तो पाँचों हैं परन्तु हम वैशेष्यात् अर्थात् प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति के सिद्धान्त की सहायता से वायु में केवल दो ही गुणों की स्थिति मानते हैं यह तर्कसंगत नहीं है। जिस प्रकार पृथिवी में रूपरसगन्धशब्दस्पर्श पाँचों गुणों की स्थिति साक्षात् सिद्ध है उसी प्रकार आकाश में शब्देतर, वायु में शब्दस्पर्शेतर, तेज में शब्दस्पर्शरूपेतर, और आप : में शब्दस्पर्शरूपरसेतर गुणों का अभाव अनुभव-सिद्ध है । शंकराचार्य छांदोग्योपनिषद् के त्रिवृतकरण प्रसंग में स्पष्ट कहते हैं कि तेज में गन्ध और रस हो ही नहीं सकते गन्धरसयोरनुदाहरणं त्रयाणामसम्भवात्, न हि गन्धरसौ तेजसि स्थः ६-४-४। स्थूलभूतों में इन अविद्यमान गुणों को अनभिव्यक्त अवस्था में भी नहीं स्वीकार किया जा सकता । स्वीकार करने पर इन महाभूतों का स्थूलत्व क्या होगा । इसे मानने में न तो कोई प्रमाण है और न ही यह तर्क-सह्य है । ऐसा मानने पर तो यहाँ पाँचों महाभूत एक अंश (स्वकीय) से स्थूल और दूसरे अंश, जो सम्मिलित रूप में प्रथम अंश के सर्वथा तुल्य है, से सूक्ष्म होकर उभयांश से अपनी ओर खींचे जाने पर स्थूल या सूक्ष्म कुछ भी नहीं रह जायेंगे । ऐसी असंगत प्रक्रिया मानने योग्य नहीं है । सूक्ष्मभूत् क्रमशः तन्मात्रावस्था से स्थूल होने पर पञ्चमहाभूत होकर नानारूप जगत् के रूप में व्यवहार के विषय बनते हैं तथा इस प्रक्रिया में प्रत्येक महाभूत में, स्व-स्व गुण के अतिरिक्त पूर्व-पूर्व महाभूत से वहां अभिव्यक्त गुणों का समावेश होता है । यह श्रुत्यनुमोदित भी है - तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः संभूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृथिव्या ओषधयः । .......तैत्तिरीयोपनिषत् २-१-१ यह श्रुतिवाक्य मायोपहित ब्रह्म (ईश्वर) से सृष्ट्युत्पत्ति, जो वस्तुतः विवर्त (पूर्वरूपापरित्यागेनासत्यनानाकारप्रतिभासः) है, को समझा रहा है। अध्यारोप के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्म का विवर्त आकाश, वायु, अग्नि, जल और पथिवी हैं । इनमें पूर्व पूर्व उत्तरोत्तर को अपनी सत्ता (व्यावहारिक) से प्रभावित करता है। इसी कारण पूर्व के गुण उत्तर में सन्निविष्ट होते हैं । "तस्मादेतस्माद्ब्रह्मण आत्मस्वरूपादाकाश: संभूतः समुत्पन्नः । आकाशो नाम शब्दगुणोऽवकाशकरो मूर्तद्रव्याणाम् । तस्मादाकाशात्स्वेन स्पर्शगुणेन पूर्वेण चाकाशगुणेन शब्देन द्विगुणो वायुः । संभूत इत्यनुवर्तते । वायोश्च स्वेन रूपगुणेन पूर्वाभ्यां च त्रिगुणोऽग्निः संभूतः । अग्नेश्च स्वेन रसगुणेन पूर्वैश्च त्रिभिश्चतुर्गुणा आपः संभूताः । अद्भ्यः स्वेन गन्धगुणेन पूर्वैश्च चतुर्भिः पञ्चगुणा पृथिवी संभूता।" शांकरभाष्य तैत्तिरीयोपनिषत् २१-१ । सृष्ट्युत्पत्ति के इस प्रसंग में उस ब्रह्म से आकाशादि महाभूतों का आविर्भाव हुआ बस इतना ही कहा गया है । पञ्चतन्मात्राओं के विवेचन का यहाँ प्रसंग नहीं है । भाष्यकार शंकराचार्य ने भी यहाँ स्थूलभूतों का ही विवेचन किया है । इस सन्दर्भ की पञ्चतन्मात्राओं के सन्दर्भ में संगति नहीं करनी चाहिये । इस श्रुति वाक्य के अनुसार भी आकाशादि महाभूत क्रमशः एक दो, तीन, चार तथा पाँच गुणों से युक्त होते है।
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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