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________________ 128 जयपाल विद्यालंकार SAMBODHI रूप रहित संसार का बीज हुआ । इस मायोपहित ब्रह्मरूप (ईश्वर) बीज से शब्द तन्मात्र-रूप आकाश हुआ। उससे (आकाश से) स्पर्श तन्मात्र-रूप वायु, वायु से रूप तन्मात्र-रूप तेज, तदनन्तर तेज से रस तन्मात्ररूप अपस् और जल से गन्ध तन्मात्र-रूप पृथिवी हुई । यहाँ तक पंच तन्मात्राओं की सृष्टि बताई गई। इन्हीं तन्मात्राओं के गुणों का विवेचन करते हुए वार्तिककार आगे कहते हैं - एक शब्द गुण वाले आकाश, शब्दस्पर्श गुण वाले वायु, शब्दस्पर्शरूप गुण वाले तेज, शब्दस्पर्शरूपरस गुण वाले जल तथा शब्दस्पर्शरूपरसगन्ध गुण वाले पृथिवी - इन सूक्ष्मभूतों से यह "महान्' सर्वत्र व्याप्त समस्त संसार स्थिति में आया । इस समस्त संसार में माला के पुष्पों में धागे की तरह सूत्र भूत वह आत्मा विद्यमान है। प्रस्तुत वार्तिक में इसे 'सूत्र' पद से कहा गया । इसी को प्राण भी कहा जाता है और यही हिरण्यगर्भ है । श्रुति वाक्य है - हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे....ऋग्० १०-१२१-१ । हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वम्....श्वेता० ३-४ । बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया - कतम एको देव इति प्राणः । वार्तिककार आचार्य सरेश्वर यहाँ अपञ्चीकृत महाभूत अर्थात् पंचतन्मात्रों का विवेचन कर रहे हैं जिन से महान्, सर्वव्यापक, भूत आविर्भूत हए । यही वह सत्र (शक्ति) है जो स्थूल रूप में आने से पहले समस्त विश्व में माला में सत्र की भांति व्याप्त होती है। प्रथम आपत्ति यह है कि यहाँ अपञ्चीकृत पंचतन्मात्र आकाश, मरुत्, तेज, आपः, मही को क्रमश: अपने अपने गुणों से युक्त कहा गया है । अर्थात् तन्मात्र अवस्था में भी आकाश शब्द गुण से युक्त है। इसी प्रकार वायु स्पर्श से, तेज रूप से, आप : रस से, पृथिवी गन्ध से युक्त हैं । ऐसा होने पर इनका तन्मात्रत्व क्या हुआ ? तन्मात्र अवस्था में आकाश या तो मात्र आकाश है या मात्र शब्द है। आगे इन्हीं आकाशादि तन्मात्राओं को क्रमश: एक, दो, तीन चार और पाँच गुणों वाला कहा गया । ऐसा कहने पर वक्ष्यमाण पञ्चीकृत महाभूतों से इन तन्मात्र (सूक्ष्म) भूतों का सूक्ष्मत्व क्या हुआ ? स्थूल महाभूत इन से भिन्न क्या हुए ? क्रमशः एक दो तीन....गुणों के होने पर इनका अपञ्चीकृतत्व क्या हुआ? इसके अतिरिक्त शंकराचार्य के पञ्चीकरणम् में मूल पाठ के साथे इस व्याख्या की संगति कैसे बैठेगी? वार्तिककार सुरेश्वराचार्य इसके बाद पञ्चीकृत स्थूल महाभूतों का विवेचन करते हैं । तथाहि - ततः स्थूलानि भूतानि पञ्च तेभ्यो विराडभूत् । पञ्चीकृतानि भूतानि स्थूलानीत्युच्यते बुधैः ॥७॥ पृथिव्यादीनि भूतानि प्रत्येकं विभजेद् द्विधा । एकैकं भागमादाय चतुर्धा विभजेत्पुनः ॥८॥ एकैकं भागमेकस्मिन् भूते संवेशयेत् क्रमात् । ततश्चाकाशभूतस्य भागाः पञ्च भवन्ति हि ॥९॥ वाय्वादिभागाश्चत्वारो, वाय्वादिष्वेवमादिशेत् । पञ्चीकरणमेतत्स्यादित्याहुस्तत्ववेदिनः ॥१०॥
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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