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________________ 124 शशि कश्यप SAMBODHI उपर्युक्त वर्णन में वरुण को मातृभाव से युक्त दिखाया है । जिस प्रकार, बच्चा चाहे कहीं भी छिपकर अपराध करता है, लेकिन माँ की निगाहों से उसका उपराध नहीं छिप सकता है; उसी प्रकार पापकर्ता कहीं भी छिपकर पाप क्यों न करे, वरुण के नेत्रों से नहीं बच सकता है । वरुण सूर्य रूपी नेत्र के द्वारा मानव जाति का सर्वेक्षण करते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में पाप से तात्पर्य है - दिव्य सत्य और ऋत (नियम) की पवित्रता का उल्लंघन, जिसके परिणामस्वरूप पापकर्ता को वरुण के कोप का भाजन बनना पड़ता है। पापकर्ता के विरूद्ध दिव्यविधानयुक्त राजा वरुण वेगपूर्वक अपने अस्त्र फैंकता है, उन पर उसका पाश उतर आता है व वे वरुण के जाल में फँस जाते हैं । परन्तु जो व्यक्ति यज्ञ के द्वारा सत्य की खोज करते हैं वे रस्से से खोले गये बछड़े की तरह या वधस्तम्भ से छोड़े गये पशु की तरह पाप के बंधन से मुक्त हो जाते हैं । ये ते पाशा वरुण सप्त सप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विषिता रूशन्तः ॥ छिनन्तु सर्वे अमृतं वदन्तं यः सत्यवाद्यति तं सृजन्तु ॥ अथर्ववेद, ४.१६.६ । ऋषिगण वरुण की प्रतिशोधात्मक हिंसा की बार-बार निंदा करते हैं । वे उससे प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें पाप से और उसके प्रतिफल-रूप मृत्यु से मुक्त कर दे । वे कहते हैं - विनाश को हमसे दूर कर दो । जो पाप हमने किया है उसे भी हमसे अलग कर दो । अज्ञानवश हमने तुम्हारे नियमों की जो अवहेलना की है, हे प्रभो ! उन पापों के कारण हमारी हिंसा न करना - यत्किं चेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्याश्चरामसि अचित्ती यत्तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः ॥ ऋग्वेद, ७/८९/५ । ऋषिगणों की यह प्रार्थना वरुण के 'दयालु' या 'कृपालु' रूप पर प्रकाश डालती है । अपराध करने पर भी प्रायश्चित करने वालों पर दया करते हैं । वे पापों को मानो रस्सी से बांधते और उसे ढीला कर देते हैं (ऋग्वेद, २.२८.५) । वे मनुष्यों के स्वयं किये पापों को ही नहीं, अपितु पितृगण द्वारा किये पापों को भी माफ कर देते हैं । वे हर घड़ी व्रतों (नियमों) को तोड़ने वाले मनुष्यों के अपराधों को भी क्षमा कर देते हैं । वैदिक देव वरुण के स्तुतिपरक मन्त्रों से उनकी सर्वज्ञता की भी सिद्धि होती है। सर्वज्ञ व्यक्ति ही दुष्टों का दमन अथवा नियमन करने में समर्थ हो सकता है। वही जान सकता है कि कहाँ पर नियमों का उल्लंघन हो रहा है । व उल्लंघन कर्ता को दण्ड दे सकता है । वरुण अपने इसी सर्वज्ञ स्वरूप के कारण सम्पूर्ण सृष्टि के व 'ऋत' के नियामक हैं । वे आकाश में पक्षियों की उड़ान को, समुद्र में जहाजों के यातायात को और सुदूरगामी वायुके मार्ग को जानते हैं - वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम् । वेद नावः समुद्रियः । ऋग्वेद, १.२५.७ वेद वातस्य वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य बृहतः । वही, ९ ।
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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