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________________ Vol. Xxx, 2006 कानून व्यवस्था के संरक्षक वैदिक वरुण देवता 123 आकाश के तारे वरुण के इशारे पर दिन में छिप जाते हैं । वरुणदेव ही रात्रि और दिन को नियमित एवं विभक्त करते हैं । अशेष भौतिक नियम वरुण के नियन्त्रण में हैं और दिन को नियमित एवं विभक्त करते हैं । अशेष भौतिक नियम वरुण के नियन्त्रण में हैं । वरुण के विधान से चन्द्रमा रात्रि में चमकता है और तारे झिलमिलाते हैं । ऋतुओं का नियमन भी वरुण ही करते हैं - "वि ये दधुः शरदं मासमादहर्यज्ञमक्तुं चाट्टचम् ।' ऋग्वेद, ७/६६.११ । विख्यात यम-यमी सूक्त में, जिसमें यम की बहन यमी मानव जाति की उत्पत्ति के निमित्त यम से प्रणय याचना करती है, उसके प्रस्ताव को ठुकराते हुए यम न केवल ऋत अपितु मित्र एवं वरुण के विधानों का भी उल्लेख करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि देवता-गण वरुण के नियमों को तोड़ने का विचार भी नहीं कर सकते हैं । ___ ऋग्वेद में वरुण के स्वरूप वर्णन विषयक व स्तुतिविषयक मन्त्रों से वरुण का सृष्टि नियामक का रूप स्पष्ट होता है - साधक प्रार्थना करते हुए कहता है - प्रभु आप वरुण हैं, वरणीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं । आप ही पापों के वर्जक हैं व विघ्नों के निवारण करने वाले हैं। परिस्थितिजन्य विघ्नों के साथ कुछ पाशों ने मुझे भी बांध रखा है। इन पाशों से मुझे छुडा दो । वरुणदेव के ये पाश व्रत (नियम, कानून) भंग करने वालों को सभी स्थानों और कालों में आबद्ध कर लेते हैं । 'उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधामं वि मध्यमं श्रथाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ॥ ऋग्वेद, १.२४.१५ । जो पाप करता है वह इन पाशों में जकड़ा जाता है । व्रतों (कानूनों) को तोड़ने वाला दण्ड का भागी बनता है। स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करना प्राकृतिक व्रत का भंग है। झूठ बोलना, चोरी करना आदि नैतिक व्रत भंग के अन्तर्गत आ जाते हैं । एक स्थान पर अपराधी अपने द्वारा किये गये वरुण अथवा देवों के विधानों के उल्लंघन की हामी भरता है (ऋग्वेद, १०.२.४) । अथर्ववेद के अनुसार वरुण की सत्ता सार्वजनिक है । जब दो मनुष्य मिलते हैं, तब वरुण तीसरे बनकर वहाँ वर्तमान रहते हैं। वे मनष्यों के निमेषों तक को गिन लेते हैं। यदि कोई मनष्य स्वर्ग के भी परे चला जाय. फिर भी वह वरुण से नहीं बच पाता, क्योंकि वरुण के सहस्रों स्पश हैं । वरुण के संदेशवाहक धुलोक से उतरकर संसार में विचरते और अपने अगणित नेत्रों द्वारा अशेष जगती के आर-पार देख लेते हैं - 'दिवस्पशः प्र चरन्तीदमस्य सहस्राक्षा अति पश्यन्ति भूमिम् । अथर्ववेद, ४.१६.४ । वरुण अपने भवन में बैठकर लोक के समग्र कार्य-कलाप का निरीक्षण करते हैं । ‘निषसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्याउस्वा । ऋग्वेद, १.२५.१ शून्य दौ सन्नि षद्य यन्मन्त्रयेते राज तद् वेद वरुणस्तृतीयः । अथर्ववेद, ४.१६.२
SR No.520780
Book TitleSambodhi 2006 Vol 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size23 MB
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