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________________ Vol. XXVIII, 2005 कुमारसम्भव की 'सञ्जीविनी' टीका का स्वारस्य - अर्थात् – “अपने केशकलाप से बिखरे हुए पुष्प से भी जो कष्ट का अनुभव करती थी, वह (पार्वती) तपश्चरण के दौरान बाहुलता का उपधान बना के सोती थी एवं बिना घासवाली भूमि के ऊपर बैठती थी ।" : [सा] यहाँ पर श्लोक के उत्तरार्ध में दोनों पाद में एक एक क्रियावाचकपद ['अशेत' एवं 'निषेदुषी'] आया हुआ है | अतः 'पादान्तं वाक्यम्' की शैलीवाली वाक्यरचना दिखाई पड़ती है । परन्तु टीकाकार वल्लभदेव ने ऐसे सरल स्वाभाविक अन्वय को छोड़कर निम्नोक्त प्रकार की व्याख्या लिखी है। असौ तदा [बाहुलतोपधायिनी ] भुजलतामुपधानीकृत्य निषेदुषी निषण्णा उपविष्टैव हस्तमूलं भूमावारोप्याऽवष्टभ्य, यतो योगनिद्रा समाधौ उपविष्टैः क्रियते ॥ केवले निरावरणे शाद्वलरहिते । स्थण्डिले स्थले एव [अशेत ] अधः सुष्वाप ॥ 87 इस टीका को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वल्लभदेव ने कैसे दूरान्वय का आश्रयण किया है। इस टीका के अनुसार श्लोक के उत्तरार्ध में दो वाक्य ऐसे हो सकते हैं (१) सा बाहुलतोपधायिनी निषेदुषी और (२) केवले स्थण्डिल एव (सा) अशेत । अर्थात् पार्वती अपने हस्तमूल को भूमि पर आरोपित करके बैठती थी । क्योंकि समाधि अवस्था में जो योगनिद्रा सिद्ध की जाती है, वह बैठकर सिद्ध की जाती है । और तृणरहित जमीन पर पार्वती शयन करती थी । इस तरह देखा जाता है कि वल्लभदेव की व्यख्या 'दुर्व्यख्या' की कोटि में पहुँच जाती है । यहाँ पर मल्लिनाथ की टीका सहज, सुन्दर और एकदम विशद है : " सा देवी बाहुलतामुपधत्त उपधानीकरोतीति बाहुलतोपधायिनी सती केवले संस्तरणरहितं स्थण्डिले भूमावेवाशेत शयितवती, तथा निषेदुष्युपविष्टा च " ॥१० अर्थात् मल्लिनाथ ने 'निषेदुषी' जैसे 'क्वसु' प्रत्ययान्त शब्द को पार्वती का विशेषण बनाकर वाक्यार्थ ऐसे निकाला है :- "बाहुलता का उपधान बनानेवाली पार्वती संस्तरणरहित भूमि पर ही शयन भी करती थी और बैठती भी थी ॥" यह अन्वय पूर्णतया व्याकरण सम्मत भी है और स्वाभाविक भी है । (५) शुचौ चतुर्णां ज्वलतां हविर्भुजां शुचिस्मिता मध्यगता सुमध्यमा । विजित्य नेत्रप्रतिघातिनीं प्रभामनन्यदृष्टिः सवितारमैक्षत ॥ ( कु० ५-२० ) इस श्लोक में, पञ्चाग्नि तप:साधना का वर्णन है। पार्वती ने अपनी अगलबगल में, आगेपीछे, चारों दिशा में अग्नि प्रज्वलित की, और उसके बीच में खड़े खड़े सूर्यबिम्ब में दृष्टि स्थिर की ! अब इस श्लोक की व्याख्या लिखते समय वल्लभदेव ने लिखा है कि - [शुचौ] आषाढ़े मासि [ज्वलतां] देदीप्यमानानां चतुर्णां [हविर्भुजां] अग्निना [मध्यगता ] मध्यस्था सती देवी....सूर्यम् [ऐक्षत] अद्राक्षीदिति पञ्चाग्नितप:साधना कथिता ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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