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वसन्तकुमार भट्ट
SAMBODHI
कहलाने के योग्य ही नहीं है।
अपने सामने ही कामदेव को क्षणार्ध में भस्मसात् होते हुए देखकर पार्वती को जो उपर्युक्त जीवनदर्शन प्राप्त हुआ है, और जीसके आधार पर वह तनिक भी निराश न होते हुए कठोर तपश्चर्या के लिए संनद्ध होती है वह पञ्चम सर्ग का प्रतिपाद्य-विषय है। अतः कुमारसम्भव काव्य के इस केन्द्रवर्ती सर्ग पर वल्लभदेव ने जो टीका लिखी है, उसका परीक्षण भी विशेषरूप से करना चाहिए :
इयेष सा कर्तुमवन्ध्यरूपतां समाधिमास्थाय तपोभिरात्मनः । अवाप्यते वा कथमन्यथा द्वयं तथाविधं प्रेम पतिश्च तादृशः ॥ (कु० ५-२)
"पार्वती ने (अब) तप के द्वारा समाधि में बैठकर, अपने रूप को अवन्ध्य (सफल) बनाने के लिए इच्छा की । क्योंकि दूसरी कौन सी विधि से "वैसा प्रेम और वैसा पति" प्राप्त हो सकता था ?". .
अर्थात् अब पार्वती की दृष्टि से तपश्चर्या एक ही तो मार्ग बाकी बचा था । यहाँ पर श्लोक के चतुर्थ-चरण को स्पष्ट करते हुए वल्लभदेव ने लिखा है कि -
यतः अन्यथा तपसा विना [तथाविधं] तादृशं देहार्धदाननिदान प्रेम, तादृशः चतुर्दशभुवनाधिपतिः पतिः भगवान् महेश्वर इति कथम् एतत् द्वयम् [अवाप्यते] समासाद्यते ।।
यहाँ पर 'पतिश्च तादृशः' की व्याख्या 'चतुर्दशभुवनाधिपतिः' के रूप में की गई है - वह ध्यानास्पद
___ दूसरी और चारित्रवर्द्धन ने जो व्याख्या लिखी है, वह इन शब्दों में है :- किं तद्द्वयम् ? तथाविधमर्द्धशरीरहारि प्रेम, तादृशः सकललोकाराध्यः पतिश्च ।
यहाँ पर 'पतिश्च तादृशः' की व्याख्या 'सकललोकाराध्यः' शब्द से की गई है । अब मल्लिनाथ अपनी 'सञ्जीविनी' में क्या लिखते हैं ? तो देखिए
येनार्धाङ्गहरा हरस्य भवेदिति भावः । तादृशः पतिश्च यो मृत्युंजय इति भावः । द्वयमेव खलु स्त्रीणामपेक्षितं यद्भर्तृवाल्लभ्यं जीवद्भर्तृकत्वं चेति । तच्च तपश्चरणैकसाध्यमिति निश्चिकायेत्यर्थः ।।
यहाँ पर मल्लिनाथ ने जो 'तादृशः पतिः' की व्याख्या की है, वही कालिदास के अभीष्टार्थ को प्रकट करनेवाली है । क्योंकि पार्वती जिसको पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थी, वह शङ्कर 'चतुर्दशभुवनाधिपति' या 'सकललोकाराध्यः' होने के कारण स्पृहणीय या वरणीय नहीं थे, वह 'मृत्युंजय' होने के कारण ही पार्वती के लिए स्पृहणीय एवं वरणीय थे ।
(४) महार्हशय्यापरिवर्तनच्युतैः स्वकेशपुष्पैरपि या स्म दूयते । अशेत सा बाहुलतोपधायिनी, निषेदुषी स्थण्डिल एव केवले ॥ (कु० ५-१२)
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