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________________ Vol. XXVIII, 2005 कुमारसम्भव की 'सञ्जीविनी' टीका का स्वारस्य 85 (३) अभिज्ञानशाकुन्तल के भरतवाक्य में 'नीललोहित' जैसे अनेक वैदिक शब्दों का प्रयोग किया है। एवमेव - शाकु० के चतुर्थ अङ्क में 'अमी वेदि परितः क्लृप्तधिष्ण्या:...' वैखानसास्त्वां वह्नयः पावयन्तु (४-८) जैसे श्लोक में ऋक्छन्दस् का सफल विनियोग किया है। अतः ऐसे 'सरस्वती श्रुतिमहती महीयताम्' कहनेवाले हमारे कवि 'त्र्यम्बक' के स्थान पर वेदपाठ का अनुकरण करते हुए यदि 'त्रियम्बक' शब्द का प्रयोग कर दें, तो वह सर्वथा सम्भव है ही, और ग्राह्य भी है। ऐसे स्थान पर, नये अपूर्व पाठ की प्रस्तावना करना बिलकुल अनुचित है । अतः मल्लिनाथ ने लिखा है कि - केचित्साहसिका: 'त्रिलोचनम्' इति पेटुः । त्र्यम्बकमित्युक्ते पादपूरण व्यत्यासात् 'त्रियम्बकम्' इति पादपूरणार्थोऽयम् इयङादेशश्च्छान्दसो महाकविप्रयोगाद् अभियुक्तैरङ्गीकृतः । संक्षेप में, वल्लभदेव जिस वैदिकशब्दप्रयोग को 'दुर्लभ' कहकर उसकी ग्राह्यता के विषय में अरुचि प्रकट करते हैं, परन्तु वह तो कालिदास का वैशिष्ट्य है। 'कुमारसम्भव' के प्रथम आठ सर्ग कालिदास की रचना है - ऐसा प्राय: सभी विद्वानों का मत है। उसमें उत्तरार्द्ध के प्रारम्भ में आया हुआ पञ्चम सर्ग, जिसमें पार्वती की तपश्चर्या का फलोदय वर्णित है, मध्यस्थ मणिन्याय से अतीव उत्कृष्ट है । क्योंकि इस पञ्चम सर्ग में कालिदास का जीवनदर्शन निहित है । कालिदास ने इस महाकाव्य के नायक भगवान् शङ्कर के मुख से कहलाया है कि यदुच्यते पार्वति "पापवृत्तये न रूपम्" इत्यव्यभिचारि तद्वचः । (कु० ५-३६) अर्थात् - [निसर्ग ने दिया हुआ] रूप (-देहसौन्दर्य) पापाचार करने के लिए नहीं होता है - यह सत्य है।" पञ्चम सर्ग की इस उक्ति को देखकर लगता है कि इसी दृष्टि से शङ्कर ने कामदेव को भस्मावशेष कर दिया था। काव्य के प्रथम चार सर्गों में जो गतिविधियाँ वर्णित हैं, उनमें देवराज इन्द्र ने अपने सुख की पुनःप्राप्ति के लिए पार्वती के रूपसौन्दर्य का दुरुपयोग करना चाहा था । "सत्पक्ष का पुनरुत्थान और असत्पक्ष का विनाश" वर्णित करना तो भारतीय साहित्य का एक मुख्य विषय रहा है, परन्तु सत्पक्ष के पुनरुत्थान के लिए. जो मार्ग अपनाया जाना चाहिए वह असत्मार्ग नहीं होना चाहिए ऐसा कालिदास का मानना है। अत: 'कामदहन' एवं 'रतिविलाप' के बाद, पञ्चम-सर्ग से सही प्रणयकथा का आरम्भ होता है। पार्वती अपने हृदय से रूपसम्पत्ति की निन्दा करती है (निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती० ५-१), और अपनी अस्मिता के बल पर, अपने सहज सत्त्व को प्रकट करके अभीष्ट पति की प्राप्ति के लिए उद्यत होती है। शिवपार्वती के मिलन में, अब देवराज इन्द्र या कामदेव जैसी कोई तीसरी सत्ता कार्यरत नहीं है। एक ओर से नायक ने जो कहा है कि - "न पापवृत्तये रूपम् (भवति)" तो दुसरी ओर से नायिका ने भी मनोगत भाव से यह स्पष्ट कर लिया है कि - "प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता" (कु० ५-१) अर्थात् वही सौन्दर्य सौन्दर्य कहा जा सकता है कि जो अपने प्रिय व्यक्ति को प्रसन्न कर सके ! इष्ट व्यक्ति का प्रेम जीत न सके वह (देह)सौन्दर्य सौन्दर्य ही नहीं है। प्रियव्यक्ति की, याने सौभाग्य की जो प्राप्ति करा दे वही तो सही अर्थ में चारुता है । बहिरङ्ग चारुता यदि प्रियव्यक्ति की प्राप्ति न करा सके तो, वह चारुता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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