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कुमारसम्भव की 'सञ्जीविनी' टीका का स्वारस्य *
वसन्तकुमार भट्ट
भूमिका : संस्कृत-साहित्य के पञ्च महाकाव्य, संस्कृत साहित्य के पञ्चप्राण समान हैं या संस्कृतसाहित्यमन्दिर के प्रारम्भिक पञ्च सोपान हैं, ऐसा कहने में कोई दोष नहीं होगा । इन पञ्चमहाकाव्यों . के ऊपर टीकाकार मल्लिनाथ ने जो 'सञ्जीविनी' इत्यादि टीकाएँ लिखी हैं, वे भी यथार्थ हैं। क्योंकि महाकविओं के द्वारा काव्यसर्जन हो जाने के बाद कालान्तर में कविओं का अभीष्टार्थ कुत्रचित् विस्मृत भी हो जाता है, या कदाचित् विपथगामी भी हो सकता है । 'कुमारसम्भव' काव्य की रचना प्रायः ईसा के पूर्व हुई थी, और उसके अनेक उपलब्ध टीकाकारों में से स्थिरदेव एवं वल्लभदेव अष्टम एवं नवम शताब्दी के हैं । अर्थात् कालिदास एवं इन उपलब्ध टीकाकारों के बीच ८००-९०० वर्षों का अन्तराल पड़ गया है । इन टीकाकारों की भी लम्बी परम्परा है, जिसमें मल्लिनाथ जैसे टीकाकार चौदहवीं शताब्दी हुए हैं। अर्थात् प्रारम्भिक समय के वल्लभदेव और पश्चात् कालिक मल्लिनाथ के बीच भी पाँचसो वर्षों का अन्तराल है । ऐसी स्थिति में 'कुमारसम्भव' की टीका लिखते समय मल्लिनाथ ने लिखा है कि
में
भारती कालिदासस्य दुर्व्याख्या-विष-मूर्छिता ।
एषा 'सञ्जीविनी' व्याख्या तामद्योज्जीवयिष्यति ॥
इस श्लोक की ओर ध्यान देने से मालुम होता है कि मल्लिनाथ की दृष्टि से उनके पुरोगामी टीकाकारों ने जो टीकायें लिखी थीं वे सभी 'कुमारसम्भव' के काव्यार्थ को विपथगामी बनानेवाली थीं। पुरोगामी टीकाकारों में प्रमुख है : वल्लभदेव । अतः उनकी टीका की ओर अङ्गुलिनिर्देश करते हुए मल्लिनाथ कहते हैं कि वल्लभदेव जैसे टीकाकारों की कलम से कालिदास की काव्यवाणी "दुर्व्याख्या-विष-मूर्च्छिता" हुई है, उसको 'सञ्जीविनी' टीका से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ।
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अतः प्रस्तुत लेख में 'कुमारसम्भव' के कतिपय श्लोकों को, उदाहरण के रूप में लेकर, देखना होगा कि वल्लभदेव की टीका में कहाँ पर न्यूनता या अपार्थता है, और ऐसे विपथगामी अर्थघटनों को दूर हटाने के लिए मल्लिनाथ कौनसी नये प्रकार की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । यह तो सर्वजनविदित है कि मल्लिनाथ किसी भी काव्य की व्याख्या का प्रारम्भ करने से पहले, निम्नोक्त श्लोक से अपनी एक सामान्य 'इतिकर्तव्यता' सुस्पष्ट कर देते हैं
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कालिदास समारोह, (२२ - २६ नवे. २००४), विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रस्तुत शोधलेख ।
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