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Vol. xxVIII, 2005
इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भगवान बुद्ध का व्यक्तित्व
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नहीं हुआ है । अतः इनको लोक धर्म का प्रतीक माना जाना युक्ति संगत प्रतीत होता है । सम्भवतः स्तूपों व चैत्यों में यह अंकन तत्कालीन लोक धर्म का प्रभाव था तथा जो शिल्पी तक्षण कार्य कर रहे थे इनकी बुद्ध में प्रतीकों के माध्यम से श्रद्धा थी तो लोकधर्म के निमित्त वे मातृसत्ता के भी उपासक थे। इन शिल्पियों द्वारा विभिन्न कालों में बोधिवृक्ष का शाक्य मुनि की स्मृति में किए गये अंकन को देखकर यह अनुभव होता है कि मानो यह अंकन बुद्ध प्रतिमा को अंकित किये जाने की प्रतीक्षा में है। (कुमार स्वामी, १९६५, पृ. १९५३) । सम्भवतः इसी भावना के वशीभूत हो कुषाण काल में बौद्ध प्रतिमाओं का अंकन हुआ और बुद्ध कालजयी बन गए । परवर्ती समय में महायान बौद्ध मत के उत्थान के साथ ही बुद्ध पूजा एवं उपासना के सर्वाधिक लोकप्रिय पात्र हो गए, इस समय महायान बौद्धमत के अधिकांश प्रतिष्ठित विद्वान जैसे अश्वघोष, नागार्जुन, आसंग तथा वसुबंधु जन्मना ब्राह्मण थे । इसका परिणाम यह हुआ कि ईसवी सन् की पाँचवी शताब्दी तक महायानी बौद्ध धर्म और वैष्णव धर्म के सामाजिक आधार में अन्तर समाप्त हो गया और पर्व मध्यकाल और मध्यकाल में जब भक्ति आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तो उस समय बौद्ध धर्म भक्ति आन्दोलन के साथ समरस हो गया क्योंकि इन दोनों धर्मो का मूलाधार कर्मकाण्ड विरोधी था तथा अव्यवहारिकताओं से स्वतन्त्र था।
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