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________________ Vol. XXVIII, 2005 कुमारसम्भव की 'सञ्जीविनी' टीका का स्वारस्य 83 इहान्वयमुखेनैव सर्वं व्याख्यायते मया । नामूलं लिख्यते' किञ्चिन्नानपेक्षितम् उच्यते ॥ इस तरह त्रिगुणात्मिका टीका लिखनेवाले मल्लिनाथ जब 'कुमारसम्भव' की टीका लिखने का आरम्भ करते हैं, और उसको "सञ्जीविनी" जैसा नामाभिधान साभिप्राय देते हैं, तो इसके पीछे कोई 'पूर्वभूमिका' के रूप में, वल्लभदेव जैसे पुरोगामी टीकाकार की टीका उनके मनश्चक्षुः के सामने है। अतः इन दोनों टीकाकारों की कुछ तुलना की जाय तो वह कालिदासानुरागी विद्वानों के लिए रसप्रद सिद्ध होगी, और मल्लिनाथ की एक सामान्य टीकाकार के रूप में जो इतिकर्तव्यता हो सकती है, उससे बहार नीकल कर देखा जाय तो क्या विशेष इतिकर्तव्यता उभर कर हमारे सामने आती है? वह भी गवेषणीय बन जायेगा। (१) महाकवि कालिदास कविताकामिनी का विलास है, और व्यञ्जना का स्वामी है। अतः एक वाचक के रूप में टीकाकार से हमारी यह अपेक्षा / उम्मीद रहती है कि वह काव्य की प्रत्येक पङ्कित एवं प्रत्येक शब्द का सूक्ष्मेक्षिका से परीक्षण करके सभी व्यञ्जना-स्थानों का प्रदर्शन करे, और काव्य की शोभा का रसास्वाद कराये । उदाहरण के रूप में एक श्लोक लेते हैं : हरस्तु किञ्चित्परिवृत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः। उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि ॥(कु० ३-६७) वल्लभदेव इस श्लोक पर अपनी 'पञ्जिका' टीका में लिखते हैं कि - अथ [हर:] भगवान् [उमामुखे] पार्वतीमुखे दृष्टिम् अक्षिपत् । यतः स्मरशरप्रहारवशात् किञ्चित् परिवृत्तधैर्यः ईषद् चलितगाम्भीर्यः । [चन्द्रोदयारम्भे] शशिकरस्पर्शत्वात् [अम्बुराशिः] उदधिः इव । [बिम्बफलाधरोष्ठे] बिम्बवत् लोहितोऽधरोष्ठो यस्येत्यभिलाषाप्रदर्शनपरं मुखविशेषणम् । अथार्थे तुशब्दः । द्विपक्षे मुक्तमर्यादत्वात् ॥ यहाँ पर वल्लभदेव ने केवल इतना ही लिखा है कि भगवान् शङ्कर ने पार्वती के मुख पर दृष्टिपात किया । और आगे इतना लिखा है कि 'बिम्बफलाधरोष्ठ' शब्द से पार्वती को प्राप्त करने की शङ्कर की अभिलाषा प्रदर्शित होती है । वल्लभदेव ने इससे अधिक कुछ नहीं लिखा है । वस्तुत: महाकवि ने इस श्लोक में जो "व्यापारयामास विलोचनानि" शब्दों में बहुवचन का प्रयोग किया है, वह अतीव ध्यानास्पद है। क्योंकि सामान्यरूप से तो 'लोचन' शब्द केवल नित्य द्विवचनान्त ही मिलता है । परन्तु प्रस्तुत काव्य में तो भगवान् त्रिलोचन शङ्कर नायक के रूप में वर्णित हैं । अतः शङ्कर का धैर्य किञ्चित् लुप्त होने पर दो नहीं, तीनों नेत्र उमा के मुख पर व्यापारित होते हैं - यह बात कवि बहुवचन के प्रयोग के द्वारा व्यञ्जित कर रहे हैं । इस व्यञ्जना की ओर वल्लभदेव का ध्यान आकर्षित ही नहीं हुआ है, वह आघातजनक है । परन्तु मल्लिनाथ ने अपनी 'सञ्जीविनी' टीका में प्रकट शब्दों में लिखा है कि - त्रिभिरपि लोचनैः" साभिलाषम् अद्राक्षीद् इत्यर्थः । एतेन भगवतो रतिभावोदय उक्तः ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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