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ललित पाण्डेय
SAMBODHI
शाक्य, पावा के मल्ल आदि अर्चना करते थे। दीघानिकाय मे भी इस विवरण को दिया गया है (राहुल सांकृत्यायन, १९७९, पृ. १५) ।
अजातशत्रु के पश्चात् बौद्ध धर्म को राजाश्रय का प्राप्त होना विवादों से परे है तथा इस पर किसी मतमतान्तर की आवश्यकता नहीं है। अशोक ने कलिंग विजय के पश्चात् बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, यह उसके हृदय परिवर्तन के कारण हुआ हो अथवा नहीं, लेकिन इतना सत्य है कि कलिंग विजय ने उसके साम्राज्य की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर दिया था और उसे एक धर्म की आवश्यकता थी जो समाजिक समरसता को बनाये रखते हुए उसको स्थायित्व प्रदान कर सके और इसकी पूर्ति बौद्ध धर्म ने की । सम्राट अशोक ने बुद्ध की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए स्तूप बनाये, इसकी पुष्टि फाह्यान व युवान चांग के विवरणों से होती है । इसके अलावा लुम्बिनी ग्राम (जिसे अब रूम्मिनदेई कहा जाता है) से प्राप्त बुद्ध के जन्म की प्रतिमा का अंकन उनके व्यक्तित्व को पूर्णतः इतिहास के सन्दर्भ में मान्य होने की पुष्टि करता है। आर. के. मुखर्जी लिखते हैं कि मैंने २८ फरवरी १९२७ को इस स्थान का अवलोकन किया तथा यह पाया कि यहाँ पर अशोक स्तम्भ के समीप एक मन्दिर है जिसमें बुद्ध के जन्म का दृश्य अंकित है। इस अंकन में बुद्ध की माता, महामाया एक साल वृक्ष के नीचे नवजात के जन्म के पश्चात् खड़ी हैं तथा उनके साथ तीन परिचारिकायें हैं । यह विकृत हो गई मूर्ति वर्तमान में हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा रूपम देवी की तरह पूजी जाती है (मुखर्जी आर. के. २०२, पृ. २०२-२०४)। इस सम्पूर्ण दृश्य के तक्षण की शैली वी. ए. स्मिथ की दृष्टि में बुद्ध के जन्म के दृश्य के अंकन में सर्वाधिक प्राचीन है जबकि पी.सी.मुखर्जी इसको अशोककालीन स्वीकारते है। पी.सी. मुखर्जी के अनुसार तक्षण के लिए जो प्रस्तर प्रयुक्त किया गया है वह पीली आभा लिए हुए है। उनके अनुसार इसी प्रकार का प्रस्तर स्तम्भ लेखों में तथा पाटलिपुत्र के दो यक्षों की मूर्ति के निर्माण में प्रयुक्त किया गया है। यह सब प्रमाण बुद्ध के जन्म के दृश्य के इस अंकन को अशोककालीन सिद्ध करते हैं तथा इसकी भी पुष्टि करते हैं कि सम्भवतः अशोक, उपगुप्त के साथ सर्वप्रथम बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित जिस स्थान पर गया था, वह लुम्बिनी ही था।
परवर्ती समय में यह बुद्ध जन्म के दृश्य का अंकन सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ जिसे सांची, भरहुत, गान्धार, अमरावती व सारनाथ में देखा जा सकता है। इन अंकनों में सांची और भरहुत के अंकन सर्वाधिक प्राचीन हैं तथा इनमें व रूम्मिनदेई के अंकन में शैलीगत समानता भी है। इन स्तूपों में अंकन का कार्य सामाजिक सहयोग और सहकार का परिणाम था, इसमें सर्वाधिक योगदान तत्कालीन व्यापारिक श्रेणियों ने प्रदान किया था । भारतीय इतिहास की दृष्टि से यह काल २०० ई. पू. से ३०० ई. के मध्य का था जब व्यापार उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच चुका था। इस काल की श्रेणियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति बौद्ध धर्म के प्रति थी। इसके अनेक प्रमाण हैं जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण विदिशा के हस्तीदन्त का कार्य करने वाले शिल्पियों द्वारा सांची के स्तूप तोरणों और वेदिकाओं में अंकन कार्य कराने का है । इन व्यापारिक श्रेणियों का बौद्ध धर्म के प्रति रूझान का कारण धर्म का मध्यमार्गी होना तो था ही बौद्ध धर्म ने उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्रदान की थी जो पूर्ववर्ती वैदिक धर्म की जटिलता और वर्ण व्यवस्था
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