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________________ इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भगवान बुद्ध का व्यक्तित्व Vol. XXVIII, 2005 का मार्ग प्रस्तावित किया था । यहाँ पर कोशाम्बी ने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्न किया है जिसका उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है । उनके अनुसार यदि जैन बौद्ध व धर्म का उदय एक क्रमिक व निरन्तर विकास की प्रक्रिया का परिणाम था तो इनका उदय सिंधु नदी के क्षेत्र में होना चाहिए था जहाँ भारत की प्रथम नगरीय संस्कृति शताब्दियों तक वैदिक के अवशेष स्मृति में विद्यमान थे, या उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में होना चाहिए था संस्कृति का केन्द्र रहा था या कुरुक्षेत्र अथवा मथुरा में होना चाहिए था जहाँ क्रमशः महाभारत का घटनाक्रम घटित हुआ तथा कृष्ण भक्ति का प्रसार हुआ था (कोशाम्बी, १९६३. पृ. १०० ) । इस समय के औपनिषदिक चिन्तक तथा गंगा के मैदानी भागों के दार्शनिक एक समान विचार के अधीन थे जिसको बौद्ध धर्म का पूर्ववर्ती कहा जा सकता है । इसका एक उदाहरण सुत्तनिपात से दिया जा सकता है। गाय बैल हमारे मित्र हैं, बिल्कुल माता पिता और सम्बन्धियों की तरह, कृषि उन पर निर्भर है। वे भोजन, शक्ति, शरीर को गौरवर्ण और प्रसन्नता प्रदान करते हैं। ऐसा जानकर पूर्व के ब्राह्मण गाय, बैल की हत्या नहीं करते थे । इस उद्धरण से स्पष्ट है कि बढ़ती हुई राजतन्त्रीय व्यवस्था के लिए पशुपालन आवश्यक हो गया था, अतः एक ऐसे धर्म की आवश्यकता थी समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके । इस ध्येय को बुद्ध ने अपने सिद्धान्तों से पूर्ण किया । समस्त बौद्ध साहित्य का अवलोकन यह प्रतिपादित करता है कि बुद्ध तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप एक सामाजिक व्यवस्था को निर्मित करने का प्रयत्न कर रहे थे जो उस समय के राजतन्त्र में आवश्यक थी । इसी सन्दर्भ में बौद्ध साहित्य में राजा के लिए यह विधान किया गया कि चोर डकैती और सामाजिक संघर्ष दण्ड एवं क्रूरता से समाप्त नहीं किए जा सकता हैं। सामाजिक समरसता दान और पुण्य से भी स्थापित नहीं की जा सकती है, इसके लिए आवश्यक है कि राजा पशुपालकों को चारा, कृषकों को बीज तथा व्यापारियों को पूंजी उपलब्ध कराये । बौद्ध धर्म के इस विचार को आधुनिक राजनीतिक अर्थशास्त्र के समकक्ष माना जा सकता है। इसलिए बुद्ध के विचार उनके निर्वाण के पश्चात् भी पल्लवित हुए और उनके धर्म को राजाश्रय भी प्राप्त हुआ । Jain Education International 77 इस सन्दर्भ में गौतम बुद्ध व उनके शिष्य आनन्द के वार्तालाप के अनुसार आनन्द के प्रश्न करने पर पहले तथागत कहते हैं कि उनके निर्वाण के पश्चात् उनके अवशेषों की अर्चना के स्थान पर उनके द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग का अनुसरण करना ही उचित होगा, लेकिन बार-बार आनन्द के पूछने पर तथागत कहते हैं कि तथागत की मृत्यु के पश्चात् उनके भौतिक अवशेषों को चक्रवर्ती राजा के अवशेषों के समान चौराहे पर स्तूप निर्माण कर सम्मान दिया जाना चाहिए। (यहाँ यह कहना समीचीन होगा तथागत क्षत्रिय - श्रेष्ठता के प्रति सदैव सजग रहे (पाण्डेय, सी. बी. १९८२, पृ. ४० - ४१) तथा क्षत्रिय श्रेष्ठता को मान्य करने एवं कृषि व व्यापार प्रोत्साहित करने हेतु मध्यम मार्ग का अनुसरण करने के उनके सिद्धान्तों ने उनको निर्वाण के समय ही राजकीय सम्मान प्रदान करने की भूमिका का निर्माण कर दिया था । इसकी पुष्टि महावंश की टीका और आर्य मंजुश्रीमूलकल्प में आये अजात शत्रु के उस सन्दर्भ से होती है जिसके अनुसार अजातशत्रु ने बुद्ध के अवशेषों पर स्तूप का निर्माण किया जिसकी वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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