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Vol. XXVIII, 2005
पुराणों की प्रासंगिकता
मानदण्ड इस अवमूल्यन को रोकने में सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर सकते है ।
भारतीय संस्कृति में राजपद पुष्पों की शैय्या नहीं अपितु वर्णाश्रम धर्म के अन्य अंगों के समान एक अंग है अत: इसे राजधर्म के नाम से अभिहित किया जाता है । पुराणगत राजधर्म में एक विशिष्ट तत्त्व यह है कि शासक मृत्युपर्यन्त राज्य का उपभोग न करे अपितु अवस्था के क्षीण होने पर पुत्र के युवा हो जाने पर राज्य उसे देकर स्वयं तपोनिरत हो जाये ।२६ इससे एक ओर तो राजकुमार असन्तोषवश कलह और षड्यन्त्र न करें और दूसरी और राजा अपने वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम को पूर्ण कर सके इसी में प्रजा का भी कल्याण निहित है । जो राजा राजधर्म का पालन नहीं करता वह इहलोक और परलोक दोनों पक्षों से भ्रष्ट होकर नरकगामी होता है ।३८ परन्तु वर्तमान समय में राजपद के लिए विभिन्न प्रकार के कुकृत्यों एवं षडयन्त्रों का आश्रय लिया जाता है । राजा वंशानुक्रम से स्वीकृत न होकर साधारण प्रजा द्वारा चुना जाता है । इस प्रजातन्त्र शासन व्यवस्था में विभिन्न प्रकार के दल अपने प्रत्याशियों को जनमत हेतु प्रस्तुत करते हैं जिस दल के सर्वाधिक प्रत्याशी होते हैं सरकार उसी की बनती है । परन्तु विकृत मानसिकता के कारण आज यह तन्त्र शुद्ध निर्णय नहीं दे पा रहा है। प्रजा को अनेकों जातियों
और उपजातियों में बाँटकर शासक वर्ग उसका शोषण कर रहा है। जातिगत विभाजन के कारण ही वर्तमान समय में मिली जुली सरकार दृष्टिगत हो रही है ।
पुरुषार्थ चतुष्ट्य का द्वितीय सोपान अर्थ भी अपने मूल रूप में उपस्थित नहीं है। अर्थ के प्रति भी मनुष्य की दृष्टि बदल गयी है । आज बिना उत्कोच (रिश्वत) के कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । धन प्राप्ति के अनैतिक कृत्यों को भी स्वीकार किया जा रहा है। व्यक्ति की भौतिक तृष्णाएँ अनन्त होने के कारण संसाधनों को एकत्रित करने की स्पृहा उसे पतन की ओर ले जा रही है। धर्मयुक्त अर्थ की कल्पना तो मात्र आदर्श बनकर रह गयी है । व्यक्ति की निष्ठा सदाचार में समाप्त हो गयी है फलत: वह धर्मविहीन अर्थ के एकत्रीकरण में प्रतिस्पर्धा कर रहा है। ऐसे असंतुलित आर्थिक समाज में पौराणिक अर्थ की धारणा को विकसित करने की आवश्यकता है जिसमें स्वल्प संग्रह और स्वल्प व्यय को समीचीन माना जाता था। स्कन्द पुराण दान में धन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग स्वीकार करता है । वस्तुतः अर्थ धर्मपरायण होने पर ही फलदायी होता है यदि इस पुराणगत आर्थिक विचार को आज के परिवेश में स्वीकार कर लिया जाये तो कई समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है ।
___ आधुनिक समाज में केवल धर्म और अर्थ ही अपने मूल स्वरूप से पदच्युत नहीं हुये है अपितु काम भी अपने विकृत रूप में दिखायी दे रहा है। आज स्त्री पुरुष के मध्य शारीरिक आकर्षण की प्रबलता ही दृष्टिगोचर होती है । सन्तान के लिये किया जानेवाला संसर्ग तो अपने अर्थ खो चुका है। अनेको प्रकार की बलात्कार की घटनाएँ जिनमें न तो आयु का विचार है और नही सम्बन्धों की पवित्रता का नित्य प्रति घटित हो रही हैं । वात्स्यायन का कामसूत्र शास्त्र के रूप में न होकर सस्ती अश्लील पुस्तकों के रूप में माना जा रहा है। व्यक्ति की कलुषित कामवृत्ति उसे सामूहिक आनन्द की ओर आकृष्ट कर रही है। चाहे वह कम्प्यूटर हो, टी.वी. हो, चलचित्र हो सब का उपयोग प्रायः विकृत काम की सन्तुष्टि के लिये किया जा रहा है। काम में धर्म का तो लेशमात्र भी अंश नहीं है। अतः धर्म विहीन काम उच्छृखलता
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